Atmadharma magazine - Ank 379
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म : वैशाख : २५०१
अने ते मळतां ज एकदम वहालथी तेने भेटी पडे!–तेम आत्मानी
स्वानुभूतिरूपी माता, तेनाथी विखुटा पडेला मुमुक्षुने ‘मारो आत्मा, मारो
आत्मा’–एम तेनी एकनी ज लगनी होय, तेने शोधवामां ज ते सर्वप्रयत्न लगावे,
एना सिवाय बीजा शेमांय एने चेन न पडे; स्वाध्याय–विचार, श्रवण–पूजा–
गुरुसेवा वगेरे सर्व कार्यनी वच्चे तेनी नजर पोताना स्वरूपने ज शोधती होय,
अने ज्यां ते लक्षगत थाय त्यां झडपथी उपयोगने तेमां वाळी परम वहालथी तेने
भेटीने ते–रूप थई जाय. बस! आवी अनुभूति ते ज सम्यग्दर्शन! ते ज मुमुक्षुनुं
साचुं जीवन!!
अंतरमां आवा अलौकिक आत्मजीवननी साथे तेनुं लौकिक जीवन पण खूब
ऊंचुं होय छे. जेवी शांति हुं पाम्यो तेवी शांति सर्वे जीवो पामे; मारा निमित्ते
जगतमां कोईने दुःख न हो, ने मने क्यांय रागद्वेष न हो, अरे, जेनाथी मारे
अत्यंत भिन्नता, जेनी साथे मारे कांई संबंध नहीं–एवा आ बधा परद्रव्यो तेमां
गमो–अणगमो शुं? व्यर्थ राग–द्वेष करीने हुं शा माटे दुःखी थाउं!–एम भेदज्ञानना
बळे तेने वीतरागतानी भावना होय छे, देव–शास्त्र–गुरु–साधर्मीजनो ते बधा
प्रत्ये तेने प्रमोदभाव आवे छे, अहो! भयंकर भवदुःखोथी छोडावीने जेमणे
जीवननुं सर्वस्व आप्युं, अपूर्व सम्यक्त्व आप्युं, तेमना उपकारनी शी वात! एम
देव–गुरुनो परम उपकार मानतो, अने सर्वे जीवोनुं हित ईच्छतो ते मुमुक्षु पूर्ण
शुद्धात्मप्राप्तिना ध्येय तरफ आगळ ने आगळ वधतो जाय छे, स्वध्येयने क्यारेय
चुकतो नथी.
अहो! सम्यक्त्व–जीवनना अपार महिमानुं शुं कहेवुं! शास्त्रोए ठेर–ठेर
एनां गाणां गाया छे; पण जड–शब्दो ए स्वसंवेद्य वस्तुनुं केटलुंक वर्णन करी शके?
जेणे कोई धन्य पळे चैतन्यहीराने पारखी लीधो ने सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं ते ज्ञानी
धर्मात्मानी दशा आश्चर्यकारी छे; जगतमां सर्वश्रेष्ठ एवा सम्यक्त्वने प्राप्त करनार
ते ज्ञानीने आत्मप्राप्तिनो अपूर्व आनंद होवा छतां तेटलाथी ज ते पूरो संतुष्ट थई
जतो नथी, पण पूर्णतानी भावनापूर्वक तेने माटे प्रयत्नशील रहे छे. अहो! मारा
त्रिकाळी स्वभावमां केवळज्ञान अने सिद्धपदना पूर्णानंदथी भरेली अनंती
पर्यायरूपे थवानी ताकात छे–तेने में जाणी छे,–तो हुं आ अल्प पर्यायमां केम
संतोष पामुं! क्यां सर्वज्ञ भगवंतो! क्यां महा ऋद्धिधारी मुनि भगवंतो! हुं तो
तेमनो दासानुदास छुं...ने मने एवी धन्यदशा क््यारे थाय तेनी भावना भावुं छुं...
आम धर्मी जीवने सम्यक्त्व पछी धर्मवृद्धिनी उत्तम विचारधारा होय छे.