पण सरखो छे, तत्त्वनिर्णय पण सरखो ज छे....संयोगो चाहे गमे ते हो. बधा
सम्यग्द्रष्टि जाणे छे के–‘शुद्धोहं, चिद्रूपोहं, निर्विकल्पोहं’–हुं शुद्ध चैतन्यरूप छुं, बहारनी
ज्ञानरूप थईने ज्ञानस्वभावी आत्माने स्पर्शी; एटले परभावोथी अलिप्त बनी गई.
जेम पाणीनी वच्चे पण कमळपत्र पाणीथी अलिप्त छे, तेम रागादिनी वच्चे तथा बाह्य
संयोगोनी वच्चे पण सम्यग्द्रष्टिनो चैतन्यभाव ते बधाथी अलिप्त छे, एटले एने ज
साचो वैराग्य छे, भले उत्कृष्ट शुभराग होय तोपण तेमां तेनी चेतना तन्मय थती
नथी, जुदी ज रहे छे. चैतन्यनी शांति पासे तेने बधाय रागादि कषायभावोनुं वेदन
आग समान लागे छे, एटले तेनाथी भिन्न एवा चैतन्यना समरसने ज निजरसपणे
वेदे छे.
जीवो सोनगढमां साक्षात् जोवा मळे छे,–तेमने वंदन हो!
कयों न हो. जैसे केवलीभगवानको विकल्प नहीं वैसे साधकको भी
अनुभवमें विकल्प नहीं. साधककी अनुभवदशा कितनी गहरी–गंभीर है
वह केवली भगवानका द्रष्टान्त देकरके आचार्यदेवने समझाया है.
केवळीभगवाननुं उदाहरण आपवुं पड्युं.
विज्ञानघन–आनंदमय–अक्षण अहो निजात्म छे;
स्वानुभूतिनां नेत्रथी प्रत्यक्ष दर्शन थाय छे.
कुंदकुंदस्वामी परम गुरु! उपकार अपरंपार छे.