Atmadharma magazine - Ank 379
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २५०१ आत्मधर्म : २१ :
जीव चारेगतिमां सम्यग्दर्शन पामी शके छे. चारमांथी कोई गतिमां सम्यग्द्रष्टि
हो, ते बधा सम्यग्द्रष्टिनी आत्मप्रतीति तो समान ज छे, सम्यक्त्वनो अतीन्द्रिय आनंद
पण सरखो छे, तत्त्वनिर्णय पण सरखो ज छे....संयोगो चाहे गमे ते हो. बधा
सम्यग्द्रष्टि जाणे छे के–‘शुद्धोहं, चिद्रूपोहं, निर्विकल्पोहं’–हुं शुद्ध चैतन्यरूप छुं, बहारनी
कोई पण वस्तु मने स्पर्शती नथी; पर्याय पहेलांं रागादिने स्पर्शती, ते हवे जुदी पडीने,
ज्ञानरूप थईने ज्ञानस्वभावी आत्माने स्पर्शी; एटले परभावोथी अलिप्त बनी गई.
जेम पाणीनी वच्चे पण कमळपत्र पाणीथी अलिप्त छे, तेम रागादिनी वच्चे तथा बाह्य
संयोगोनी वच्चे पण सम्यग्द्रष्टिनो चैतन्यभाव ते बधाथी अलिप्त छे, एटले एने ज
साचो वैराग्य छे, भले उत्कृष्ट शुभराग होय तोपण तेमां तेनी चेतना तन्मय थती
नथी, जुदी ज रहे छे. चैतन्यनी शांति पासे तेने बधाय रागादि कषायभावोनुं वेदन
आग समान लागे छे, एटले तेनाथी भिन्न एवा चैतन्यना समरसने ज निजरसपणे
वेदे छे.
[राग आग दहे सदा....तातैं शमामृत सेइये।]
अहा एवा साधकजीवोनी शांति देखीने बीजा जीवोने पण आत्मसाधनानी
प्रेरणा मळे छे. महा भाग्यथी आपणने अत्यारे पण आवा शांतरसमय सम्यग्द्रष्टि
जीवो सोनगढमां साक्षात् जोवा मळे छे,–तेमने वंदन हो!
* अनुभूतिकी महिमा *
गाथा १४३–१४४ में अनुभवकी बहुत अच्छी बात समजाई है.
अनुभव सबके सब विकल्पोंसे पार है–चाहे वह विकल्प शुद्धात्माका भी
कयों न हो. जैसे केवलीभगवानको विकल्प नहीं वैसे साधकको भी
अनुभवमें विकल्प नहीं. साधककी अनुभवदशा कितनी गहरी–गंभीर है
वह केवली भगवानका द्रष्टान्त देकरके आचार्यदेवने समझाया है.
–निर्विकल्पअनुभूतिनो महिमा केवो ऊंडो अने गंभीर छे के
श्रुतज्ञानी साधकनी अनुभूतिनुं स्वरूप समजाववा माटे आचार्यदेवने
केवळीभगवाननुं उदाहरण आपवुं पड्युं.
आनंदमय आ समयप्राभृत अजोड जगनुं नेत्र छे;
विज्ञानघन–आनंदमय–अक्षण अहो निजात्म छे;
स्वानुभूतिनां नेत्रथी प्रत्यक्ष दर्शन थाय छे.
कुंदकुंदस्वामी परम गुरु! उपकार अपरंपार छे.