ने आत्मध्यान माटे वीरता जागे छे. एमना स्वरूपमग्न स्थिरनयनो जोतां जाणे हमणां
महावीरना दर्शन थाय छे : ‘भगवान आ अहीं ज ऊभा! ’ धन्य भगवान....आपनुं
दिव्य दर्शन!
मोक्षधामनी अद्भुत शोभा नीहाळतां–नीहाळतां, ने मोक्षना महिमावंत स्वरूपनुं
चिन्तन करतां–करतां सरोवरनी वच्चेना मंदिरमां वीरप्रभुना चरणे पहोंचीए छीए
त्यारे तो चैतन्यना तार परम वैराग्यथी झणझणी ऊठे छे; चारेकोर बस वैराग्य....
वैराग्य....वैराग्य!! मोक्षना धाममां बीजुं शुं होय?–त्यां कांई अशांति के राग न होय;
मुमुक्षु चैतन्यना चिन्तनवडे जाणे के मोक्षसुखनो ज लहावो लई रह्यो होय! एवी दशा
अनुभवे छे. भगवानना विरहमां ते रोतो नथी परंतु ज्ञान अने भक्तिना बळे
भगवानने साक्षात्रूप करीने बेधडकपणे आत्मसाक्षीथी कहे छे के–हे नाथ! अमने अहीं
मुकीने आप भले मुक्तिपुरीमां पधार्या, परंतु अमे आपनी मुक्तिपुरी जोई छे, ए
मुक्तिपुरनो मार्ग पण जोयो छे, ने आपना शासनना धोरीमार्गे अमेय आपनी पासे
आवी रह्या छीए.