Atmadharma magazine - Ank 379
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २५०१ आत्मधर्म : २३ :
अध्यात्म रस घोलन
नवीन स्वाध्याय
(पाहुड दोहानो अनुवाद : लेखांक (५)
१६०. हे योगी! पांदडां तोड मा, ने फळने पण हाथ न लगाव पण जेने माटे तुं ते
तोडे छे ते शिवने ज अहीं (पांदडा पर) चढावी दे! व्यंगमां कवि कहे छे के हे
शिवपुजारी! जो शिव पांदडांथी ज प्रसन्न थता होय तो, तेमने ज झाड उपर
चढावी देने!
१६१. देवालयना पाषाण, तीर्थनुं जळ के पोथीनां सर्वे काव्यो,–वगेरे जे वस्तुओ
खीलेली देखाय छे ते बधी इंधन थई जशे. (ते बधाने क्षणभंगुर जाणीने
अविनाशी आत्माने ध्याव.)
१६२. अनेक तीर्थोमां भ्रमण करवा छतां कोई फळ तो न थयुं. बहारमां तो पाणी वडे
शुद्ध थयो पण अंतरमां शुं शुद्धि थई?
१६३. हे वत्स! तुं अनेक तीर्थोमां भम्यो, अने शरीरना चामडाने पाणीथी धोयुं, पण
पापमळथी मलिन एवा तारा मनने तुं कई रीते धोईश?
१६४. हे जोगी! जेनां हैयामां जन्म–मरण वगरना एक देव नथी वसता, ते जीव
परलोकने (मोक्षने) कई रीते पामशे?
१६५. एक तत्त्व तो सारी रीते जाणे छे, बीजुं तत्त्व कांई जाणतुं नथी. सर्वने जाणनार
एवा आत्मतत्त्वनुं चरित्र देवो पण नथी जाणता; जे अनुभवे छे ते ज तेने
बराबर जाणे छे. पूछपरछ वडे एनी संतृप्ति क्यांथी थाय? (आत्मतत्त्व
स्वानुभवगम्य छे, वाद–विवादथी के पूछपरछथी ते प्राप्त थतुं नथी.)
१६६. जाणवा छतां, ते तत्त्व नथी तो लखवामां आवतुं, के पूछनारने नथी कही शकातुं;
कहेवाथी कोईना चित्तमां ते ठरतुं नथी. अथवा गुरुना उपदेशथी, जो ते चित्तमां
ठरे छे तो तेने चित्तमां धारण करनारने ते सर्वत्र अंतरमां स्थित रहे छे.
१६७. नदीनुं पाणी दरियाद्वारा विरूद्ध दिशामां पाछुं ठेलाय छे, मोटुं जहाज पण पवन
वडे विरूद्ध दिशामां खेचाय छे; तेम ज्ञान अने अज्ञाननो संघर्ष थतां बीजी ज
प्रवृत्ति थाय छे. (कुसंगथी जीव अज्ञान तरफ खेंचाई जाय छे.)