: २४ : आत्मधर्म : वैशाख : २५०१
१६८. आकाशमां जे विविध शब्दो (एटले के दिव्यध्वनिनो उपदेश) छे तेने सुमति
अनुसरे छे, पण दुर्मति तेने अनुसरतो नथी. पांच ईन्द्रिय सहित मन ज्यारे
अस्त थई जाय छे त्यारे परमतत्त्व प्रगट थाय छे. तेमां हे मूढ! तुं स्थिर था.
१६९. अरेरे, अक्षय निरामय परमगतिनी प्राप्ति हजी पण न थई! मननी भ्रांतडी
भांगी नहीं, ने एम ने एम दिवसो वीती रह्या छे.
१७०. हे योगी! विषयोथी तारा मनने रोकीने शीघ्र सहज अवस्थारूप कर; अक्षय
निरामय स्वरूपमां पेसतां ज स्वयं तेनो संहार थई जशे.
१७१. अक्षय निरामय परम गतिमां प्रवेशीने मनने छोडी दे.–एम करवाथी तारी
आवागमननी वेल तूटी जशे.–एमां भ्रांति न कर.
१७२. आ प्रमाणे चित्तने अविचळ–स्थिर करीने आत्मानुं ध्यान थाय छे; अने आठे
कर्मोने हणीने सिद्धि महापुरीमां पहोंचाय छे.
१७३. शाही वडे लखायेला ग्रंथो वंचाई–वंचाईने क्षीण थई गया, तोपण हे जीव! तुं
क्यां ऊपज्यो ने क्यां लीन थईश ते एक परम कळाने तें न जाणी. (मात्र
शास्त्र भण्यो पण आत्माने न जाण्यो.)
१७४. जेणे बे मटाडीने एक कर्युं (–भेद मटाडीने अभेद कर्युं, अथवा राग–द्वेष
मटाडीने समता करी), अने विषय–कषायोरूपी बेल वडे मननी वेलने चरवा न
दीधी, ते गुरुनी हुं शिष्याणी छुं, बीजा कोईनी लालसा हुं नथी करती.
१७५. आगळ, पाछळ, दशे दिशामां हुं ज्यां जोउं त्यां सर्वत्र ते ज छे; बस, हवे मारी
भ्रांति मटी गई, बीजा कोईने पूछवानुं न रह्युं.
१७६. जेम लवण पाणीमां विलीन थई जाय छे तेम चित्त चैतन्यमां विलीन थतां जीव
समरसी थई जाय छे.–समाधिमां आ सिवाय बीजुं शुं करवानुं छे?
१७७. एकवार पण जो ते चैतन्यदेवना पदने पामुं तो तेनी साथे अपूर्व क्रीडा करुं;–
जेम नवा घडामां पाणीनुं टीपुं सर्वांग प्रवेशी जाय तेम हुं तेमां सर्वांगे प्रवेशी
जाउं.
१७८. एक तीर्थथी बीजा तीर्थमां भ्रमण करनार जीव मात्र देहने संताप करे छे; पण
आत्मामां आत्माने ध्यावतां ते निर्वाणपदने पामे छे. तेथी आत्माने ध्यावीने तुं
निर्वाणमां पग मांड!