: वैशाख : २५०१ आत्मधर्म : २५ :
१७९. हे योगी! जे पदने देखवा माटे तुं अनेक तीर्थोमां भमतो फरे छे, ते शिवपद पण
तारी साथे ने साथे ज फर्युं.....छतां पण तुं तेने न पामी शक्यो! (–केमके
शिवपदने ते बहारना तीर्थोमां शोध्युं पण अंर्तस्वभावमां द्रष्टि न करी.)
१८०. मूढ जीवो, लोको द्वारा बनावेला देवळमां देवने शोधे छे, पण पोताना ज
देहदेवळमां शिव–संत बिराजमान छे तेने तेओ देखता नथी.
१८१. हे योगी! तें डाबी बाजु ने जमणी बाजु बधे ईन्द्रियविषयोरूपी गाम वसाव्युं,
पण अंतरने तो सूनुं राख्युं. त्यां पण एक बीजुं (ईन्द्रियातीत) गाम वसाव!
१८२. हे देव! मने तारी चिंता छे: ज्यारे आ मध्याह्ननो प्रसार वीती जशे त्यारे तुं तो
पोढी जईश, ने आ पाली सूनी पडी रहेशे. (आत्मा छे त्यां सुधी आ ईंद्रियोनी
नगरी वसेली लागे छे; आत्मा चाल्यो जतां ते बधुं शूनकार उज्जड थई जाय
छे;–माटे विषयोथी विमुख थईने आत्माने साधी ले.)
१८३. हे स्वामी! मने कोई एवो अपूर्व उपदेश आपो के जेथी मिथ्याबुद्धि तडाक करती
तूटी जाय, ने मन पण अस्तगत थई जाय. बीजा कोई देवोनुं मारे शुं काम छे?
१८४. जे सकलीकरणने के पाणी–पत्रना भेदने जाणतो नथी, ने आत्मानो परमात्मा
साथे संबंध करतो नथी, ते तो पत्थरना गांगडाने देव तरीके पूजे छे.
१८५. जेणे आत्माने परमात्मा साथे जोड्यो नथी ने आवागमन मटाड्युं नथी, तेने
फोतरां कूटतां घणो काळ वीती गयो तोपण तंदुलनो एक्केय दाणो हाथमां न
आव्यो.
१८६. देहदेवळमां तुं पोते शिव वसे छे, अने तुं तेने बीजा देवळमां ढुंढे छे! अरे,
सिद्धप्रभु भीक्षा माटे भमी रह्या छे–ए देखीने मने हास्य (आश्चर्य) थाय छे.
१८७ वनमां, देवालयोमां अने तीर्थोमां भ्रमण कर्युं, आकाशमां पण फरीने जोयुं,–पण
अरेरे! आ भ्रमणमां घेटा अने पशु जेवा लोको ज भेट्या......(भगवाननो तो
भेटो क्यांय न थयो!)
१८८. पुण्य अने पाप बंनेना मार्गने छोडीने अलखनी अंदर जवाय छे; ते बंनेनुं
(पुण्य–पापनुं) कांई एवुं फळ नथी मळतुं के जेनाथी लक्ष्यनी प्राप्ति थाय.
१८९. हे जोगी! जोगनी गति विषम छे; मन वार्युं रहेतुं नथी, ने ईन्द्रियविषयोना