: २६ : आत्मधर्म : वैशाख : २५०१
सुखमां बलि–बलि जाय छे–फरीफरीने ईन्द्रियविषयोमां भमे छे.
१९०. हे योगी! देखो, आ चैतन्य–करभ (हाथीनुं बच्चुं अथवा ऊंट), तेनी गति केवी
विपरीत–विचित्र छे!–के ते बंधायेलुं होय त्यारे तो त्रणभुवनमां परिभ्रमण करे छे
ने छूटुं होय त्यारे एक पगलुं पण नथी भरतुं. (जगतमां सामान्यपणे एम छे के
ऊंट वगेरे प्राणी छूटा होय ते चारेकोर फरे, ने बंधायेला होय ते हरीफरी न शके;
तेने बदले आत्मानी गति एवी विचित्र छे के ते ज्यारे कर्मबंधनथी छूटो (मुक्त)
होय त्यारे तो एक पगलुंय चालतो नथी–स्थिर ज रहे छे, ने ज्यारे ते बंधायेलो
होय त्यारे चारे गतिमां त्रणलोकमां भ्रमण करे छे.)
१९१. अरेरे, संसारमां भमतां जीवने नथी तो संत देखाता, के नथी तत्त्व देखातुं; अने
परनी रक्षानो भार खभे लईने फरे छे–ईन्द्रियो अने मनरूपी फोजने साथे
लईने परनी रक्षा माटे भम्या करे छे!
१९२. जे उज्जडने तो वसावे छे ने वसेलाने उज्जड करे छे, जेने नथी तो पुण्य के नथी
पाप,–अहो! एवा योगीनी बलिहारी छे. हुं तेमने बलि जाउं छुं–अर्पणता करुं
छुं.
१९३. जे पुराणा कर्मोने खपावे छे, नवा कर्मोने आववा देतो नथी, ने दररोज
जिनदेवने ध्यावे छे, ते जीव परमात्मा थई जाय छे.
१९४. –अने बीजा, जेओ विषयोनुं सेवन करे छे ने बहु पाप करे छे तेओ कर्मनी
सहाय लईने नरकना परोणा बनी जाय छे.
१९५. जेम कूतरुं चामडाना कटकामां मुर्छाईने हेरान थाय छे, तेम मूढ लोको कुत्सित
अने क्षार–मूत्रनी दुर्गंधथी भरेला शरीरमां मुर्छाईने संतापने पामे छे.
१९६. हे मूर्ख! मूळमूत्रनुं धाम एवुं आ मलिन शरीर, तेने देखतां के तेमां रमतां कांई
सुख थतुं नथी, तोपण मूढ लोको कोई तेने छोडता नथी. (चालु)
* * * * *
एक राजा दीक्षाप्रसंगे पोताना पुत्रोने शिखामण आपे छे–
लौकिक योग्यता अने सज्जनता उपरांत, भगवान अर्हन्तदेव द्वारा
उपदिष्ट रत्नत्रय धर्मने कदी न भूलो शास्त्रज्ञनी संगति करो. रत्नत्रयथी
भूषित सज्जनोनो आदर अने समागम करो. मुनि–आर्यिका–श्रावक–श्राविका
ए चतुर्विध संघनी ज्यारे ज्यारे अवसर मळे त्यारे आदरपूर्वक वंदना करो....
अने रत्नत्रयना सेवनमां सदा तत्पर रहो. (वरांगचरित्रमांथी)