: २८ : आत्मधर्म : वैशाख : २५०१
आत्माना स्वभावनुं भान थतां अंदर कृतकृत्यता वेदाय छे. अहो, मारी प्रभुता
मारामां छे, मारी प्रभुताने हुं अत्यार सुधी भूल्यो, तेथी रखड्यो; मारा आनंद–
स्वरूपथी च्युत थईने विषयो तरफना झंपापातथी हुं दुःखी ज थयो. पण हवे मने मारा
आत्मानी अपूर्व प्राप्ति थई. आवा आत्मानी प्राप्ति एटले के श्रद्धा–ज्ञान–रमणता ते
समाधिनुं कारण छे.
वर्तमान अपूर्व दशा सहित पोतानी पूर्व दशाने पण अंतरात्मा विचारे छे के
अरेरे! ईन्द्रियविषयोमां में अनंतकाळ वीताव्यो छतां तेनाथी अंशमात्र तृप्ति न थई,
पण हवे विषयातीत अतीन्द्रिय ज्ञानस्वभावने जाणतां अपूर्व तृप्ति थई गई.
वर्तमानमां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आव्यो त्यारे पूर्वना ईन्द्रियविषयो प्रत्येथी
उदासीनता थई गई ने एम विषाद थयो के अरेरे! मारा चैतन्यआनंदने चूकीने पूर्वे
ईन्द्रियविषयोमां में व्यर्थ अनंतकाळ वीताव्यो.
जेणे आत्माना अतीन्द्रिय अमृतनो स्वाद चाख्यो तेने विषयो विष जेवा लागे
छे....पर विषयो तरफनी लागणी तेने दुःखरूप लागे छे, आत्माना निर्विकल्प आनंदना
वेदन सिवाय बीजे क््यांय ते पोतानो आनंद स्वप्नेय मानतो नथी. जेने विषयोनी
मीठाश लागती होय के रागनी मीठाश लागती होय तेणे अतीन्द्रिय आत्माना
वीतरागी अमृतनो स्वाद चाख्यो नथी.
एक तरफ अतीन्द्रिय आनंदनो सागर आत्मा छे;
बीजी तरफ बाह्यमां सुख वगरना ईन्द्रियविषयो छे;
त्यां जेमां सुख माने ते तरफ जीव झूके छे. जे जीव अंतरमां अतीन्द्रिय आत्म–
स्वभाव तरफ झूके छे ते तो पोताना अतीन्द्रियसुखने अनुभवे छे; अने जे जीव बाह्य–
विषयोमां सुख मानीने ईन्द्रियविषयो तरफ झूके छे ते घोर संसारना दुःखने पामे छे.
सामसामा बे मार्ग छे.
(१) अतीन्द्रिय स्वभावने चूकीने ईन्द्रियविषयो तरफ झूकाव ते संसारमार्ग छे. अने
(२) ईन्द्रियविषयोमां सुखबुद्धि छोडीने अंतरना ज्ञानानंदस्वभावमां झूकाव ते
मोक्षमार्ग छे.–ज्यां गमे त्यां जाव.
अहो, आत्मामां आनंदना निधान भर्या छे ते संतो देखाडे छे; पण अज्ञानथी
अंध थयेला मूढ जीवो पोताना आनंदनिधानने देखता नथी.