Atmadharma magazine - Ank 379
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २५०१ आत्मधर्म : २९ :
अहो, निजदेहमां रहेलो आ ज्ञानस्वरूप आत्मा पोते ज आनंदस्वरूप छे, आनंद
ज तेनुं रूप छे, पण अंतरमां लक्ष करीने आंख उघाडे तो देखाय ने? जेम जन्मांध मनुष्यो
झळहळता सूर्यने पण देखता नथी तेम ईन्द्रियविषयोमां ज सुख मानीने वर्तनारा मोहांध
अज्ञानी जीवो पोताना आनंदस्वरूप आत्माने देखता नथी. तेओ विषयोमां एवा मूर्छाई
गया छे के जराक पाछुं वाळीने चैतन्य सामे नजर पण करता नथी.
आत्माना ज्ञानानंदस्वभावनो निर्णय थतां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे,
अने ईन्द्रियविषयो नीरस लागे. ईन्द्रियना विषयो अजीव छे ने हुं तो ज्ञानस्वरूप
आत्मा छुं–एम ज्यांसुधी नथी जाणतो त्यांसुधी जीव अज्ञानपणे बाह्य विषयोने सुंदर
मानी रह्यो छे.
ज्ञानी तो आत्माना अतीन्द्रिय आनंद पासे ईन्द्रो अने चक्रवर्तीओना वैभवने
पण तुच्छ समजे छे. चैतन्यनी सुंदरता जाणी त्यां बीजानी सुंदरता लागती नथी.
आत्माना चैतन्य–सरोवरना शांतजळमां केलि करनार समकिती–हंसने
चैतन्यना शांतरस सिवाय बहारमां पुण्य–पापनी वृत्तिनी के ईन्द्रियविषयोनी रुचि
ऊडी गई छे; चैतन्यना आनंदनो एवो निर्णय (वेदन सहित) थई गयो छे के बीजा
कोई वेदनमां स्वप्नेय सुख लागतुं नथी–आवी समकितीनी दशा छे.
आ संबंधमां भजन आवे छे के–
जब निज आतम अनुभव आवे......तब ओर कछु न सुहावे....जब निज०
रस नीरस हो जात तत्क्षण.....अक्ष–विषय नहीं भावे....जब निज०
गोष्ठी कथा कुतूहल विघटे, पुद्गल प्रीति नशावे....
राग–द्वेष जुग चपल पक्षयुत, मन पक्षी मर जावे...जब०
ज्ञानानन्द सुधारस उमगे, घट अंतर न समावे...
‘भागचन्द’ ऐसे अनुभवको, हाथ जोरि शिर नावे...जब०
अहो! आ चैतन्यस्वरूप आत्माना चिंतनमात्रथी पण रसो विरस थई जाय छे,
गोष्टीकथानुं कौतुक ऊडी जाय छे, विषयोनुं विरेचन थई जाय छे अने शरीर उपरथी
पण प्रीति विरमी जाय छे. वाणीनुं जोस विरमी जाय छे, ने मन पण समस्त दोषसहित
पंचत्वने पामे छे, एटले के चैतन्यना चिंतनथी मनसंबंधी दोषो नाश