Atmadharma magazine - Ank 379
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: ३० : आत्मधर्म : वैशाख : २५०१
पामी जाय छे, ने आत्मा अविरतपणे आनंदने धारण करे छे.–आवो चैतन्यना
चिंतननो महिमा छे.
ज्ञानीनेय शुभाशुभराग आवे पण अंतरमां चैतन्यना रस आडे तेनो रस ऊडी
गयो छे. ज्ञानीने राग थाय त्यां अज्ञानीने एम लागे छे के एने रागनी रुचि हशे!
पण ते वखते अंदर रागथी अत्यंत पार एवा ज्ञानरसनो निर्णय ज्ञानीने वर्ते छे, ते
निर्णयनी अज्ञानीने खबर नथी.
समस्त ईन्द्रियविषयोथी पार थईने आत्माना अतीन्द्रिय आनंदमां लीन थयेला
एवा अशरीरी सिद्धभगवंतो भव्यजीवने आदर्श पूरो पाडे छे के अरे जीव! बहारना
कोईपण विषयो वगरनुं तारुं सुख आत्माना अतीन्द्रिय स्वभावमां छे, तेनी प्रतीत
कर ने तेनी लगनी लगाड. अहो! सिद्धभगवंतोने प्रतीतमां ल्ये तो जीवने
ईन्द्रियविषयोमां सुखबुद्धि ऊडी जाय, ने आत्माना अतीन्द्रिय सुखस्वभावनी प्रतीत
थई जाय. रागमां सुख, ईन्द्रियविषयोमां सुख, एम अज्ञानी विषयोनो भिखारी थई
रह्यो छे; सिद्धभगवान रागरहित ने ईन्द्रियविषयो रहित थई गया छे ने एकला
आत्मस्वभावथी ज परम–सुखी छे. ते जगतना जीवोने एम दर्शावी रह्या छे के अरे
जीवो! विषयोमां–रागमां तमारुं सुख नथी, आत्मस्वभावमां ज सुख छे, तेने अंतरमां
देखो, ने ईन्द्रियविषयोनुं कुतूहल छोडो. चैतन्यना आनंदनो ज उल्लास, तेनो ज रस,
तेनुं ज कुतूहल, तेमां ज होंश, तेनी ज गोष्ठी करो.
हुं देहादिथी भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्मा छुं, बहारमां ईन्द्रियोद्वारा जे देखाय छे
ते बधुंय अचेतन छे, ते हुं नथी, ते बधा माराथी भिन्न छे–एवा भानपूर्वक
चैतन्यस्वरूपना चिंतनमां एकाग्रतावडे बाह्य वचन प्रवृत्ति छोडवी तेमज, अंतरंग
विकल्पो पण छोडवा; आ रीते उपयोगने अंतरमां जोडवो तेनुं नाम योग छे, अने
संक्षेपथी आ योग ते परमात्मानो प्रकाशक प्रदीप छे.
ज्ञानी तो जाणे छे के वाणी ते जड छे, ते वाणी माराथी भिन्न छे, ते वाणीथी
मारुं स्वरूप प्रकाशित थतुं नथी, ने वाणी तरफना विकल्पवडे पण मारा स्वरूपनो प्रकाश
थतो नथी, वाणी अने विकल्प बंनेथी पार थईने अंतर्मुख चैतन्यना चिंतनमां
एकाग्रतावडे ज मारा स्वरूपनुं प्रकाशन थाय छे. वचन अने विकल्प बंनेथी जुदो हुं तो
ज्ञान छुं, मारा ज्ञानवडे ज हुं मने जाणुं छुं–एम ज्ञानी पोते पोताना आत्माने
स्वसंवेदनथी प्रकाशे छे.–आ ज आत्माने जाणवानी रीत छे.