Atmadharma magazine - Ank 379
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २५०१ आत्मधर्म : ३१ :
भाई, एकवार सत्यनो निर्णय करीने हा तो पाड. मारा ज्ञानस्वरूप सिवाय
बीजे क््यांय मारुं सुख के शांति नथी एम एकवार निर्णय कर तो अंतर्मुख थवानो
अवसर आवे. पण जेने निर्णय ज खोटो होय, बहारमां ने रागमां शांति माने, तेने
अंतर्मुख एकाग्र थवानो अवसर क््यांथी आवे? घणा कहे छे के मरण टाणे आपणे
समाधि राखीशुं. पण जीवनमां जेणे देहथी भिन्न आत्मानी दरकार करी नथी, देहादिनां
कार्योने ज पोतानां कार्य मान्या छे, ते देह छूटवा टाणे कोना जोरे समाधि राखशे? जेणे
देहथी भिन्न आत्माने जाणीने तेनी वारंवार भावनानो अभ्यास कर्यो छे तेने ज देह
छूटवा टाणे चैतन्यना जोरे समाधि रही शकशे.
पोताना आत्मा सिवाय बहारमां बीजुं कोई शरण आत्माने छे ज नहि.
बहारमां बीजाने शरण मानीने समाधान करवा मांगे ते तो फांफां छे, संयोग छूटी जतां
तेनुं समाधान टकी नहि शके. अने आत्माना आधारे जेणे समाधान कर्युं तेने गमे तेवा
प्रतिकूळ संयोगमां पण ते टकी रहेशे.
सर्वज्ञ भगवाननो उपदेश बाह्य विषयोथी छोडावीने अंतरमां चैतन्यनुं शरण
करावे छे; ते ज जीवनुं हित छे, केमके चैतन्यना अनुभवथी ज भवनो नाश थईने
मोक्षसुख प्रगटे छे.
देहने ज जेणे आत्मा मान्यो छे, विषयोमां ज जेणे सुख मान्युं छे एवा मूढ
जीवोने वीतरागनी वाणी प्रतिकूळ पडे छे, केम के वीतरागनी वाणी तो विषयोनुं
विरेचन करावनारी छे. कायर जीवो विषयोनी लीनता छोडीने चैतन्यने देखी शकता
नथी, तेओ तो चैतन्यना पुरुषार्थथी रहित छे, तेमनामां भवरहित एवा वीतरागनी
वाणीनो निर्णय करवानी ताकात नथी.
“अहो जीवो! तमारुं सुख तमारामां छे, बाह्य विषयोमां क््यांय सुख नथी,
आत्मा ज सुखस्वभावी छे, माटे आत्मामां अंतर्मुख थये ज सुख छे”–आवी वाणीना
रणकार ज्यां काने पडे त्यां तो आत्मार्थी जीवनो आत्मा झणझणी ऊठे के वाह! आ
भव रहित वीतरागी पुरुषनी वाणी!! आत्माना परमशांतरसने बतावनारी आ
वाणी अपूर्व छे. वीतरागी संतोनी वाणी परम अमृत छे, ने ए भवरोगनो नाश
करनार अमोघ औषध छे.–आम तेनो आत्मा उल्लसी जाय छे, ने पुरुषार्थनी दिशा
स्वतरफ वळी जाय छे, विषयोमांथी सुखबुद्धि ऊडी जाय छे.–एणे ज खरेखर भवरहित
वीतरागनी वाणीनो निर्णय कर्यो छे.