: ३२ : आत्मधर्म : वैशाख : २५०१
स्व–सन्मुख थवानुं बतावनारी वीतरागनी वाणीनो निर्णय करनार ज्ञानी
वचन अने विकल्पनी प्रवृत्तिनुं अवलंबन छोडीने, ज्ञानने अंतर्मुख करीने पोताना
आत्माने समस्त परपदार्थोथी भिन्न देखे छे–जाणे छे–अनुभवे छे. आ पोताना
परमात्मस्वरूपने देखवा माटेनो योग छे.
एकवार द्रढ निर्णयथी पोताना वेदनमां ज एम भासवुं जोईए के अरे! बाह्य
वलणमां क््यांय कोईपण विषयोमां रंचमात्र सुख मने वेदातुं नथी, बाह्य वलणमां तो
एकली आकुळता छे, ने अंतर तरफना वलणमां ज शांति अने अनाकुळता छे; माटे
मारा स्वभावमां ज अंतर्मुख थवा जेवुं छे.–आवा निर्णयना जोरे अंतर्मुख थतां विकल्प
तूटीने अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय छे.
ज्ञायकतत्त्वमांथी कांई वाणीनो ध्वनि नथी ऊठतो, ते वाणीनो ध्वनि तो
जडपरमाणुओमां ऊठे छे. वाणी तरफनो विकल्प ऊठे ते पण ज्ञायकतत्त्वमांथी नथी
ऊठतो. ज्ञानपर लक्षमां अटकतां विकल्प ऊठ्यो छे, ते ज्ञाननुं स्वरूप नथी. आवा
ज्ञानस्वरूपने नक्की करे तो अंदर अपूर्व शांति ने समाधि थाय.
चैतन्यस्वरूप आत्मा पोते पोताथी ज स्वसंवेद्य छे; ते पोतानी जागृति वगर
बीजा कोईथी समजे एवो नथी. माटे ज्ञातास्वभावथी बहार वृत्ति जाय ने बीजा
पासेथी समजवानी के बीजाने समजाववानी वृत्ति धर्मीने ऊठे ते पण मोहनी चेष्टा
होवाथी तेने उन्मत्त चेष्टा कही छे; वाणीना के भेदना लक्षे आत्माना निर्विकल्प स्वरूपनुं
ग्रहण थतुं नथी, माटे भेदनो विकल्प ऊठे ते पण मोहनी चेष्टा छे, मारा ज्ञायकतत्त्वमां
ते विकल्पनो प्रवेश नथी.
अहो, आचार्यदेव कहे छे के परम उपशांत चैतन्यतत्त्वना आनंदमांथी बहार
नीकळीने अस्थिरतामां जे विकल्पो ऊठे छे ते पण उन्मत्त–चेष्टा छे. अरे! वीतरागी
संतोए जे उन्मत्त चेष्टा कीधी तेने मूढ जीवो धर्म माने छे, पण तेमनी ते मान्यता
उन्मत्त जेवी छे–मिथ्या छे.
जुओ तो खरा आ वीतरागमार्ग! एक शुभ विकल्प पण वीतरागमार्गमां
पालवतो नथी. वस्तुनुं स्वरूप विकल्पातीत छे, तेना अनुभवरूप वीतरागमार्ग छे;
अने तेमां ज आनंद तथा समाधि छे. तेथी हे जीवो!–