Atmadharma magazine - Ank 379
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २५०१ आत्मधर्म : ३३ :
* आत्मसन्मुख जीव *
(सम्यक्त्व जीवन लेखमाळा: लेखांक–१४)
दुःखथी थाकेलो ने अंदरथी धा नांखतो जिज्ञासु जीव
अतीन्द्रिय आनंदनो तीव्र चाहक बन्यो छे. तेने संसारनो कलबलाट
छोडी अंतरमां आत्मप्राप्तिनुं एक ज ध्येय छे. दुनियाना कोलाहलथी
कंटाळेलुं तेनुं चित्त आत्मशांतिने नजीकमां देखीने ते तरफ एकदम
उल्लसे छे. जेम माताने तलसतुं बाळक माताने देखतां आनंदथी
उल्लसे छे ने दोडीने तेने भेटी पडे छे, तेम आत्मा माटे तलसतुं
मुमुक्षुनुं चित्त आत्माने देखीने आनंदथी उल्लसे छे ने जल्दी
अंदरमां जईने तेने भेटे छे. ते मुमुक्षु बीजा ज्ञानीओनी
अनुभूतिनी वात परम प्रीतिथी सांभळे छे: अहो, आवी अद्भुत
अनुभूति!–आम परम उत्साहथी ते पोताना स्वकार्यने साधे छे....
तेना आत्मामां धर्मचक्र चालु थाय छे. (–सं.)

अनादिथी चारगतिमां रखडतो जीव मोहथी–कषायथी दुःखी थई रह्यो छे; दुःखमां
रखडतां–रखडतां तेने थाक लाग्यो अने तेने विसामानी–शांतिनी झंखना जागी; ते सुख–
शांतिनी शोधमां उपड्यो, त्यां महान पुण्ययोगे तेने साचा देव–गुरुनो भेटो थयो, गुरुना
चरणमां सर्वस्व अर्पण कर्युं, एमनी आज्ञा शिरोमान्य करी; अने आत्माना हितनी
जिज्ञासाथी गुरुने विनयपूर्वक पूछयुं–“हे प्रभो! मारा आत्माने शांति केम थाय? पुण्य–
पाप करी करीने चारेगतिमां रखडी–रखडीने थाक्यो पण मने क््यांय जराय शांति न मळी;
तो ते शांति क्यां छुपायेली छे?–ए मने बतावो; केमके आपनो आत्मा शांतिने पामेलो छे
तेथी आप ज मने तेनो साचो रस्तो बतावशो.” आ प्रमाणे गुरु उपर विश्वासपूर्वक शिष्ये
पूछ्युं. त्यारे श्रीगुरु ते खरा जिज्ञासुने कंई पण वात गोपव्या विना एवुं तत्त्व समजावे
छे,–के जे समजवाथी जीवने अपूर्व शांति मळे.
शिष्य ते सांभळीने न्याय अने युक्तिथी आत्मानुं स्वरूप विचारे छे ने गुरुए
बताव्या प्रमाणे अंदरना वेदनमां शांति शोधे छे: तेने गृहीतमिथ्यात्व छूटी गयुं छे,