Atmadharma magazine - Ank 379
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 38 of 53

background image
: वैशाख : २५०१ आत्मधर्म : ३५ :
प्रगट्युं छे अने मारो आत्मा शांति वेदे छे’–एवो भेद पण रह्यो न हतो; आत्मा स्वयं
अनंतगुणनी अनुभूतिस्वरूप ज हतो, कदी न अनुभवायेली शांति त्यां वेदाती हती.
पछी उपयोग अनुभूतिमांथी बहार आवतां छतां ते उपयोग रागादिना परिचयथी दूर
रहे छे, रागनी भाईबंधी तेणे सर्वथा छोडी दीधी छे एटले रागना काळे पण पोते तो
तेनाथी जुदो ज रहे छे.–आवा छूटा (रागवगरना) उपयोगपणे धर्मी सदा पोताने
अनुभवे छे–श्रद्धे छे–जाणे छे, एटले रागना काळेय तेना सम्यक्त्वादिभावो जीवंत रहे
छे, बगडता नथी. देहथी जगतथी ने रागथी,–बधाथी छूटुं उपयोग–परिणमन आत्माने
मुक्तपणे अनुभवे छे. अहा, ए दशा कोई अनेरी अद्भुत छे.
आवी स्वानुभवदशा थतां पोताने पाकी खात्री थई चुकी के हवे हुं मोक्षना
मार्गमां छुं, हवे संसारना मार्गे नथी; हवे मारा भवनो छेडो आवी गयो;
सिद्धभगवाननी नातमां हुं भळी गयो. भले नानो छुं,–मारो साधकभाव नानो छे–
पण छुं तो सिद्धभगवाननी ज जातनो! अनुभवमांथी बहार आव्या पछी जे विकल्प
ऊठे तेनाथी ज्ञानने जुदुं ज जाणे छे, एटले ज्ञान पोते तो निर्विकल्प ज रहे छे; ते ज्ञान
अने विकल्पनी एकता करतो नथी, आवो तेनो अकर्ताभाव छे. ज्ञानभावने ज करतो
थको ते सदा तृप्त अने प्रसन्न–प्रशांत रहे छे, ज्ञानना प्रतापे तेनुं चित्त एकदम शांत
थईने, कषायवगरनुं शीतळ चंदनसमान शोभी रह्युं छे ने जिनदेवना मोक्षमार्गमां ते
आनंदसहित केलि करे छे.–ते सम्यग्द्रष्टि वंदनीय छे.
भेदविज्ञान जग्यो जिनके घट शीतल चित्त भयो जिम चंदन;
केलि करे शिवमारगमें जगमांहि जिनेश्वरके लघुनन्दन;
सत्यस्वरूप सदा जिनके प्रगट्यो अवदात मिथ्यात–निकंदन;
शांतदशा तिनकी पहचानी करे करजोड बनारसी वन्दन.
पोताना अचिंत्य आत्मवैभवने पोतामां देखीने धर्मी परम तृप्ति अनुभवे छे.
अहा, आत्मानो पूर्ण वैभव हाथमां आव्यो (अनुभवमां आव्यो) तेना आनंद पासे
जगतना बीजा बधा वैभवो साव तुच्छ लागे छे. ते सम्यग्द्रष्टि–धर्मात्मा भले
गृहस्थपणे होय, परिवारसहित होय अने वेपार रोजगार पण करतो होय, छतां तेनी
चेतना ते बधाथी जळकमळवत् अलिप्त रहे छे, एटले ते लेपाता नथी पण छूटता ज
जाय छे.–ए बधो सम्यक्त्वनो प्रताप छे–एम जाणीने हे भव्यजीवो! तमे परम
आदरथी सम्यक्त्वनी आराधना करो.