Atmadharma magazine - Ank 379
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: ४८ : आत्मधर्म : वैशाख : २५०१
आचार्यदेव समयसारनी शरूआतमां कहे छे के अहो, आत्माना स्वानुभवना
निजवैभवथी हुं एकत्व–विभक्त शुद्ध आत्मा देखाडुं छुं, तेने तमे तमारा स्वानुभवथी
प्रत्यक्ष करीने प्रमाण करजो.
अहो, जैनसंतोए आत्माना अनुभवनी वात ईशाराथी समजावी छे. जेम
तेजीला घोडाने दोडाववा चाबखा मारवाना न होय, एने तो ईशारा ज बस होय! तेम
मोक्षने माटे तेजीलो एवो मुमुक्षु ते तो संतोना ईसाराथी (थोडाक उपदेशथी) ज
चैतन्यनुं स्वरूप समजीने स्वानुभव करी ल्ये छे; स्वानुभवमां आत्माना आनंदनी
लब्धि प्रगटे छे तेनी शी वात! आत्मानी ते लब्धि पासे जगतना बीजा कोई वैभवनी
किंमत नथी.
अहो! अनंत वैभवथी भरपूर चैतन्यसत्तानो स्वीकार स्वानुभूति ज करी शके
छे. अनुभूति ज चैतन्यनी पूर्ण सत्तानो स्वीकार करीने अपूर्व आनंदनुं वेदन करे छे.
आवी अनुभूतिनी ताकातनी शी वात! आवी अनुभूतिनो मंगल अवसर प्रभु
महावीरना शासनमां ज छे. महावीर भगवानना शासनने कुंदकुंदस्वामीए जीवंत राख्युं
छे. अहो, मंगळ श्लोकमां महावीर भगवान अने गौतमगणधरनी साथे ज
कुंदकुंदस्वामीनुं स्थान छे; (मंगलं कुंदकुंदार्यो) तेमणे आ समयसारमां मंत्रोवडे आत्माने
जगाडयो छे: भाई! जाग रे जाग! तारी चैतन्यसत्ताने अनुभूतिमां ले...अत्यारे नहि
जागे तो तुं क््यारे जागीश?
(पांच हजारथी वधु जनसमुदाय चैतन्यनी मधुरी वात आनंद–उल्लासथी
सांभळी रही छे. आत्माने केम आराधवो–ते वात समजावतां गुरुदेव हजारो
श्रोताओने चैतन्यबंसरीना नादे डोलावी रह्या छे. गुजरातनो यात्रासंघ पण
वीरप्रभुना धर्मचक्र सहित आवी पहोंच्यो छे. त्रणमास पहेलांं अमदावादथी उपडेलुं
धर्मचक्र, हजार यात्रिक साथे भारतमां घणे स्थळे विहार करीने आजे पुन: अमदावाद
आव्युं छे, ने यात्रिको उत्सवमां आनंदथी भाग लई रह्या छे.)
अहो, स्वानुभूतिवडे आवा आत्मतत्त्वने समजीने तेना श्रद्धा–ज्ञान–अनुचरण
करवा ते ज धर्मचक्र छे, ते ज महावीरनो मार्ग छे, ते ज मोक्षनो मंगल महोत्सव छे.
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