Atmadharma magazine - Ank 379
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : वैशाख : २५०१
८५. शांति ने ठंडक (–अकषाय–वेदन) आपनारी वस्तु बहारमां क्यां
छे? अहा, चैतन्यदेव! शांति देवानी ताकात एक तारामां ज छे.
चैतन्यनी आराधनाना अद्भुत प्रभावनी शी वात!!
८६. हे साधर्मी! भगवाननो आत्मा दरेक प्रसंगे (गर्भथी ते मोक्षसुधी)
केवा चैतन्यभावे परिणमी रह्यो छे–तेने तुं ओळख. एकला
संयोगने के पुण्यना ठाठने, के राग–द्वेषने जोईने न अटक! आत्मिक
गुणोद्वारा प्रभुनी साची ओळखाण कर, तो तनेय सम्यक्त्वादि
थशे, ने तुं पण प्रभुना मोक्षना मार्गमां प्रवेशी जईश.
जे जाणतो महावीरने चेतनमयी शुद्ध भावथी;
ते जाणतो निजात्मने समकित ल्ये आनंदथी.
आत्महित – भावना
(रात्रे सूती वखते जीवन–अवलोकन)
आज मारा जीवनमां शुं–शुं कर्युं में हितनुं?
शुं कार्य करवुं रही गयुं, क्षण क्षण अरेरे! आत्मनुं?
कया दोष छोड्या आत्मथी, कया गुणनी प्राप्ति करी?
कई भावी उज्वळ भावना सम्यक्त्व–आदिक भावनी?
कई–कई क्षणे चिंतन कर्युं निज आत्मना शुद्ध गुणनुं?
कई–कई रीते सेवन कर्युं में देव–गुरु–धर्मनुं?
रे! जीवन मोंघुं जाय मारुं, शीघ्र साधुं धर्मने,
फरीफरी छे दुर्लभ अरे! आ पामवो नरदेहने.
सम्यक्त्व साधुं, ज्ञान साधुं, चरण साधुं आत्ममां;
ए रत्नत्रयना भावथी करुं सफळता आ जीवनमां.
प्रमाद छोडीने हवे हुं भावुं छुं निज आत्माने,
निज आत्मना भावन वडे करुं नाश आ भवचक्रने.