: जेठ : २५०१ आत्मधर्म : ९ :
अध्यात्म रस – घोलन
नवीन स्वाध्याय
[पाहुड दोहानो अनुवाद: लेखांक [६]
१९७. हे जीव! तुं जिनवरने ध्याव, ने विषय–कषायोने छोड. हे वत्स! एम करवाथी
दुःख तने कदी नहि देखाय, अने तुं अजर–अमर पदने पामीश.
१९८. हे वत्स! विषय कषायोने छोडीने मनने आत्मामां स्थिर कर, एम करवाथी
चारगतिना चूरा करीने तुं अतूल परमात्मपदने पामीश.
१९९. हे मन! ईन्द्रियोना फेलावने तुं रोक अने परमार्थने जाण. ज्ञानमय आत्माने
छोडीने बीजा जे कोई शास्त्र छे ते तो विडंबना छे.
२००. हे जीव! तुं विषयोनुं चिंतन न कर; विषयो कदी भला नथी होता; हे वत्स!
सेवतां तो ते विषयो मधुर लागे छे पण पछी ते दुःख द्ये छे.
२०१. जे जीव विषय–कषायोमां रंजित थईने आत्मामां चित्त नथी जोडतो, ते दुष्कृत
कर्मोने बांधीने दीर्घ संसारमां रखडे छे.
२०२. हे वत्स! ईन्द्रियविषयोने छोड; मोहने पण छोड; प्रतिदिन परमपदने ध्याव के
जेथी तने एवो व्यवसाय थशे, –अर्थात् तुं पण परमात्मा बनी जईश.
२०३. निर्जितश्वास, निस्पंद लोचन अने सकल व्यापारथी मुक्त, –आवी अवस्थानी
प्राप्ति ते योग छे, –एमां संदेह नथी.
२०४. मननो वेपार अटकी जाय, राग–द्वेषना भावो छूटी जाय अने आत्मा
परमपदमां परिस्थित थाय, –त्यारे निर्वाण थाय छे.
२०५. हे जीव! तुं आत्मस्वभावने छोडीने विषयोने सेवे छे, तो ते व्यवसाय एवो छे
के तुं दुर्गतिमां जईश.
२०६. जेमां नथी कोई मंत्र के नथी तंत्र, नथी ध्येय के नथी धारणा, श्वासोश्वास पण
नथी, –ए कोईने कारण बनाव्या वगरनुं जे परमसुख छे तेमां मुनि सुए छे–
लीन थाय छे,–त्यां आ कोई गरबडनो कलबलाट तेमने रूचतो नथी.
२०७. विशेष उपवास करवाथी (–परमात्मामां वसवाथी) घणो संवर थाय छे. वधु