: १० : आत्मधर्म : जेठ : २५०१
विस्तार शा माटे पूछे छे? –हवे कोईने न पूछ.
२०८. हे जीव! जिनवरे कहेल सुप्रसिद्ध तप कर, दशविध धर्म कर; ए रीते कर्मनी
निर्जरा कर. –आ में तने स्पष्ट मार्ग बताव्यो.
२०९. अहो जीव! जिनवरभाषित दशविध धर्मने तथा सारभूत अहिंसा धर्मने तुं
एकाग्रमनथी एवी रीते भाव, –के जेथी तुं संसारने तोडी नांख.
२१०. भवभवमां मारुं सम्यग्दर्शन निर्मळ रहो, भवभवमां हुं समाधि करुं,
भवभवमां ऋषि–मुनि मारा गुरु हो, अने मनमां उत्पन्न थता व्याधिनो
निग्रह हो.
२११. हे जीव! रामसिंहमुनि एम कहे छे के तुं बार अनुप्रेक्षाने एकाग्रमनथी एवी
रीते भाव के जेथी शिवपुरीने पाम.
२१२. जे शून्य छे ते सर्वथा शून्य नथी; त्रणभुवनथी शून्य (खाली) होवाथी ते
(आत्मा) शून्य देखाय छे (–पण स्वभावथी तो ते पूर्ण छे). आवा शून्य–
सद्भावमां प्रवेशेलो आत्मा पुण्य–पापने परिहरे छे.
२१३. रे अजाण्या! बे पंथमां गमन नथी थई शकतुं, बे मुखवाळी सोयथी गोदडी
नथी सीवाती; तेम ईंद्रियसुख अने मोक्ष–ए बे वात पण एकसाथे होती नथी.
२१४. उपवासवडे प्रतपन थतां देह संतप्त थाय छे, ने ते संतापथी ईंद्रियोनुं घर बळी
जाय छे. –ए ज मोक्षनुं कारण छे.
२१५. अरे, ते घरमां भोजन रहेवा दो के ज्यां सिद्धनुं अपवर्णन थतुं होय. एवा
(सिद्धनो अवर्णवाद करनारा) जीवो साथे जयकार करवाथी अर्थात् तेनी प्रशंसा
करवाथी पण सम्यक्त्व मलिन थाय छे.
२१६. हे. योगी! पृथ्वी पर भ्रमण करतां जो माणेक मली जाय, तो ते पोताना
कपडामां बांधी लेजे, अने एकान्तमां बेसीने देखजे. (संसारभ्रमणमां
सम्यक्त्वरत्न पामीने एकांतमां फरीफरीने तेनी स्वानुभूति करजे. लोकनो संग
करीश मा.)
२१७. जे वादविवाद करे छे, जेनी भ्रांति मटी नथी, जे पोतानी बडाईमां ने
महापापमां रक्त छे, ते भ्रांत थईने भम्या करे छे.
२१८. आहार छे ते कायानी रक्षा अर्थे छे; काया ज्ञानना संपादन माटे छे; ज्ञान कर्मना
नाशने माटे छे; अने कर्मना नाशथी परमपदनी प्राप्ति थाय छे.