: १२ : आत्मधर्म : जेठ : २५०१
सम्यक्त्वनी अपूर्व क्षण
[सम्यक्त्वजीवन–लेखमाळा: लेखांक १५]
–अने पछी तो एक एवी क्षण आवे छे के आत्मा कषायोथी
छूटीने चैतन्यना परम गंभीर शांतरसमां ठरी जाय छे...पोतानुं
अत्यंत सुंदर महान अस्तित्व आखेआखुं स्व–संवेदनपूर्वक
प्रतीतमां आवी जाय छे. –ए ज छे सम्यग्दर्शन! ए ज छे मंगल
चैतन्यप्रभात! अने ए ज छे महावीरनो मार्ग!
अहा, ए अपूर्वदशानी शी वात! वहाला साधर्मीओ!
आनंदथी प्रभुना आ मार्गमां आवो....ने मोक्षनी मजा चाखो.
आ जीव संसारमां अनादिथी रखडयो छे–ते मात्र एक आत्माना भान विना.
जीवे अनंतवार पुण्य–पापना परिणाम कर्यां छे, तेमां कंई आश्चर्य के नवाई पामवा
जेवुं लागतुं नथी. अने ते पुण्य–पापनी वात पण तेने वारंवार सांभळवा मळे छे,
एटले तेनी कंई ज महत्ता नथी, तेमां कंई हित नथी.
हवे कोई महान पुण्योदये जीवने पोताना शुद्धस्वरूपनी, एटले के पुण्य–पापथी
पार चैतन्यस्वरूप आत्मानी वात सांभळवा मळी.
ज्ञानी–गुरु पासेथी आत्मानुं स्वरूप सांभळतां अपूर्व भाव जाग्यो के–अहो!
आवुं मारुं स्वरूप छे! आवो महान सुख–शांति–आनंद–प्रभुतानो चैतन्यखजानो मारा
पोतामां ज भर्यो छे–एम जाणीने तेने बहु ज आश्चर्य थाय छे, आत्मानो अपूर्व प्रेम
जागे छे, ने आवुं मजानुं अद्भुत स्वरूप बतावनारा देव–गुरुनो ते अपार उपकार
माने छे. तेने आत्मानी धून लागे छे के–बस, मारुं आवुं आत्मस्वरूप छे तेने हवे कोई
पण प्रकारे हुं जाणुं ने अनुभवमां लउं. ए सिवाय मने बीजे क््यांय शांति थवानी नथी.
अत्यारसुधी हुं पोते पोताने भूलीने हेरान थई गयो. पण हवे भवकट्टी करीने मोक्षने
साधवानो अवसर आव्यो छे.