Atmadharma magazine - Ank 380
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : जेठ : २५०१
[लेखांक : छठ्ठो]

भगवान महावीरे आत्मानी सहज शांति पामवानो जे
स्वाधीनमार्ग, बताव्यो, अने संतोए जेने प्रवाहित राखीने अहीं
आपणा सुधी पहोंचाडयो, ते मार्गने महाभाग्यथी श्रीगुरुप्रतापे प्राप्त
करीने, तेना द्वारा अपूर्व आत्मशांतिनो लाभ ल्यो.

अग्राह्य एवा क्रोधादि विकारीभावोने पोताना स्वरूपमां जे ग्रहतो नथी, अने
गृहीत एवा पोताना अनंत ज्ञानादिस्वरूपने जे कदी छोडतो नथी, जे सर्वथा सर्वने
जाणे छे–एवो स्वसंवेद्य हुं छुं–एम धर्मी जाणे छे. जेओ आत्मानी अपूर्व शांतिने
चाहता होय तेओ आवा आत्माने स्वसंवेदनथी जाणो.
समकिती पोताना आत्माने शरीररूप के रागादिरूप नथी मानतो, पण
ज्ञायकस्वरूप ज माने छे. अनादिथी ज आत्मा ज्ञानादिस्वरूप छे, ते स्वरूपथी आत्मा
कदी छूटतो नथी; अने क्रोधादिस्वरूप कदी थई जतो नथी. क्षणिक पर्यायमां क्रोधादि छे
पण ते पर्याय जेटलो ज आत्मा समकिती मानतो नथी. ते क्रोधादिने पोताना स्वरूपथी
बाह्य जाणे छे, ने ज्ञानानंदमय स्वभावने ज ते पोताना अंर्तस्वरूपे ग्रहण करे छे. आ
रीते स्वसंवेदनमां उपयोगस्वरूप आत्माने क्रोधादिथी जुदो अनुभववो ते परमात्मा
थवानो उपाय छे, ते ज साची शांतिनी रीत छे.
मारो आत्मा उपयोगस्वरूप छे ते उपयोगमां ज छे, ने क्रोधादिमां नथी; तथा
क्रोधादिभावो मारा उपयोगमां नथी; आवुं भेदज्ञान ज्यारे थाय छे त्यारे ते अंतरात्मा
क्रोधादि परभावोमां एकतापणे कदी परिणमतो नथी, क्रोधादिने आत्माना स्वरूपपणे
ग्रहतो नथी, अने ‘हुं तो ज्ञायक छुं’ –एम श्रद्धा–ज्ञानमां ग्रहण कर्युं छे तेने कदी छोडतो
नथी, पोताना आत्माने ज्ञायकस्वरूपे ज स्वीकारे छे. –अने ते ज्ञानभाव शांतिरूप ज
छे. क्रोध ते अशांति छे, ज्ञान ते शांति छे.