‘भाई बोलोने! केम बोलता नथी? माराथी केम रीसाणा छो?’ पण ठूंठुं तो कांई बोले
नहि, एटले खीजाईने बाथ भरवा जाय, त्यां खबर पडे के अरे! आ तो झाडनुं ठूंठुं! में
तेने माणस मानीने अत्यार सुधी व्यर्थ चेष्टाओ करी. तेम अज्ञानी जीव आ देहने ज
आत्मा मानी रह्यो छे, देह तो झाडना ठूंठा जेवो जड छे छतां तेने ज जीव मानीने ‘हुं
बोलुं, हुं खाउं’ एम अज्ञानी व्यर्थ चेष्टाओ करे छे. धर्मी जाणे छे के अरे, में पण पहेलांं
अज्ञानदशामां शरीरने आत्मा मानीने उन्मत्तवत् व्यर्थ चेष्टाओ करी; हवे भान थयुं के
अहो, हुं तो ज्ञानानंदस्वरूप ज छुं, आ देह तो जड अचेतन छे; देहथी हुं अत्यंत जुदो ज
छुं, पूर्वे पण जुदो ज हतो पण भ्रमथी तेने मारो मानीने में व्यर्थ चेष्टाओ करी हती.
जीव आ जड देहरूपी मडदाने जीवतुं मानीने (एटले के तेने ज आत्मा मानीने)
अनंतकाळथी तेने साथे फेरवी रह्यो छे; मृतककलेवरमां चैतन्य भगवान मूर्छाई गयो
छे. देहनी चेष्टाओथी जे पोताने सुखी–दुःखी माने छे, देहनी क्रिया हुं करुं एम माने छे,
देहनी क्रिया धर्मनुं साधन थाय एम माने छे ते बधाय झाडना ठूंठाने माणस माननारा
जेवा, शरीरने ज आत्मा माननारा छे. अरे! अज्ञानदशामां चैतन्यतत्त्वने चूकीने
भ्रमथी जीव केवी केवी व्यर्थ चेष्टाओ करी रह्यो छे तेनी तेने पोताने खबर नथी. ज्यारे
जीव पोते ज्ञानी थयो त्यारे तेने खबर पडी के अरे! पूर्वे अज्ञानदशामां में केवी नकामी
चेष्टाओ करी!
वगेरेनी चेष्टा छोडी दे छे; तेम ज्ञानी विचारे छे के में अज्ञानदशामां तो देहने ज आत्मा
मानीने व्यर्थ चेष्टाओ करी, ने हुं दुःखी थयो, पण हवे मने भान थयुं के अरे, आ देह
तो जड छे, ते मारो उपकारी के अपकारी नथी, ते माराथी भिन्न छे; हुं तो अरूपी
चिदानंद आत्मा छुं–आवुं भान थतां शरीरनी चेष्टाओ प्रत्ये हवे मने उदासीनता थई
गई छे, अर्थात् शरीरनी चेष्टा मारी छे–एम हवे मने जरापण भासतुं नथी, शरीरनी
चेष्टावडे मारुं कांई सुधरे के बगडे–एवी भ्रमणा हवे छूटी गई छे. मारी चेष्टा