भ्रांतिनी माफक आ अचेतन शरीरने ज में आत्मा मान्यो ने तेनी साथे व्यर्थ चेष्टाओ
बोलावे, तेना उपर प्रेम करे, तेनी साथे लडे, लडतां लडतां ते पोताना उपर पडे त्यां
एम माने के आणे मने दाब्यो, अने कहे के भाईसाब! हवे ऊठ....एम अनेक प्रकारे
तेनी साथे भ्रांतिथी चेष्टा करे...पण ज्यां प्रकाश थाय ने देखाय के अरे, आ तो पुरुष
नथी पण पत्थर छे–ठूंठ छे, में भ्रांतिथी व्यर्थ चेष्टा करी....! –तेम अज्ञानरूपी अंधाराने
लीधे अज्ञानी अचेतन शरीरादिने ज आत्मा मानीने तेनी साथे प्रीति करतो, बाह्य
विषयोने पोताना ईष्ट–अनिष्टकारी मानीने तेमना प्रत्ये राग–द्वेष करतो, हुं ज खाउं
छुं–हुं ज पीउं छुं, हुं ज बोलुं छुं, आंखथी हुं ज देखुं छुं, आ ईंद्रियो हुं ज छुं–एम
मानीने अनेक प्रकारे भ्रांतिथी चेष्टा करतो, पण हवे ज्यां ज्ञानप्रकाश थयो.....ने
अचेतन छे, ते हुं नथी, छतां तेने ज आत्मा मानीने अत्यार सुधी में व्यर्थ चेष्टाओ
करी, पण हवे ए भ्रांति टळी गई छे. –ते हवे पोताने चैतन्यस्वरूप ज जाणतो थको
चैतन्यभावनी ज चेष्टा करे छे, ने स्व–परनुं भेदज्ञान करीने चैतन्यनी अपूर्व शांतिने
वेदे छे. हवे भान थयुं के आ देह तो माराथी अत्यंत जुदो अचेतन छे.
* शरीर संयोगी, हुं असंयोगी; शरीर विनाशी, हुं अविनाशी;
* शरीर आंधळुं, हुं देखतो; शरीर ईन्द्रियग्राह्य, हुं अतीन्द्रिय–स्वसंवेदनग्राह्य;
* शरीर माराथी बाह्य परतत्त्व, अने हुं अंतरंग चैतन्यमूर्ति स्वतत्त्व;
–आ रीते शरीरने अने मारे अत्यंत भिन्नता छे.
आवा अत्यंत भिन्नपणाना विवेकथी ज्यां भेदज्ञान थयुं अने यथार्थ
सुधरवा–बगडवाथी मारुं कांई सुधरे के बगडे–एवो भ्रम छूटी गयो, ने देहादि
परद्रव्योथी उपेक्षित थईने चिदानंद–स्वभावमां वळ्यो, त्यां जीवने परम शांति थई.
(आनुं नाम समाधि छे.)