Atmadharma magazine - Ank 380
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २५०१ आत्मधर्म : १९ :
परद्रव्योथी आत्माने भिन्न जाण्या विना तेमनाथी उपेक्षा थाय नहि.
परद्रव्योथी उपेक्षा विना स्वतत्त्वमां एकाग्रता केवी? अने स्वतत्त्वमां एकाग्रता वगर
समाधि केवी? समाधि वगर सुख के शांति केवा? माटे सौथी पहेलांं भेदज्ञानना
अभ्यासवडे देहादिथी भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने जाणवो ते ज शांतिनो उपाय छे.
हे जीवो! साची शांति पामवा आत्माने ओळखो.
जेनामां सुख छे–तेने जाणतां सुख थाय छे.
जेनामां सुख नथी तेने जाणतां सुख थतुं नथी.
जे शुद्धात्माना संवेदननी उपलब्धि थतां मारा ज्ञानचक्षु खूली गया, तथा जे
ईन्द्रियो अने विकल्पोथी अगोचर, अतीन्द्रिय छे, एवो स्वसंवेद्य हुं छुं. आवा स्वसंवेद्य
आत्मारूपे ज हुं मने अनुभवुं छुं, ए सिवाय देहादि कोई परद्रव्यो मने मारापणे
जरापण भासता नथी. –आ रीते सम्यग्ज्ञान थतां आत्माने पोताना स्वरूपनी निःशंक
खबर पडे छे. हवे शुद्ध चैतन्यतत्त्वनुं मने भान थतां हुं जाग्यो ने बधा तत्त्वोना
यथावत् स्वरूपने जाणवारूपे हुं परिणम्यो. आवुं शुद्ध चैतन्यतत्त्व हुं छुं, के जेना
अभावथी हुं सुप्त हतो ने हवे जेना भानथी हुं जाग्यो. केवुं छे मारुं स्वरूप? अतीन्द्रिय
छे अने वचनना विकल्पोथी अगोचर छे; मात्र स्वसंवेदनगम्य छे. व्यवहारना
विकल्पोथी के रागथी ग्रहण थाय एवुं मारुं स्वरूप नथी, मारुं स्वरूप तो अंतरना
स्वसंवेदनवडे ज अनुभवमां आवे तेवुं छे. आवुं स्वसंवेद्यतत्त्व हुं छे.
जेम ऊंघमां सूतेला मनुष्यने आसपासनुं भान रहेतुं नथी, तेम देहमां
आत्मबुद्धि करीने मोहनिद्रामां सूतेला प्राणीओने स्व–परनुं कांई भान नथी. संतो स्व–
परनुं भेदज्ञान करावीने तेनी मोहनिद्रा छोडावे छे, ने तेने जगाडे छे के अरे जीव! तुं
जाग...जाग! जागीने तारा चैतन्यपदने जो.
ज्यां अंर्तमुख थईने अतीन्द्रिय आत्मानुं स्वसंवेदन थयुं त्यां धर्मीना
चैतन्यचक्षु खुली गया, अनादिनी अज्ञाननिद्रा ऊडी गई ते कहे छे के अहा! आवा
मारा तत्त्वने अत्यारसुधी कदी में नहोतुं जाण्युं, पण हवे स्वसंवेदनथी में मारा
आत्मतत्त्वने जाणी लीधुं छे...हवे हुं जागृत थयो छुं.
ज्ञानी–धर्मात्मा जगतना कार्योनो उत्साह छोडीने
निजस्वरूपना उत्साहमां जागृत वर्ते छे.