: २० : आत्मधर्म : जेठ : २५०१
निजस्वरूपमां जेनो उपयोग छे ते जागृत छे.
चैतन्यस्वरूपथी जे विमुख छे ते ऊंघतो छे.
ज्ञानआनंदमय पोताना परमात्मतत्त्वने जाणीने तेनी भावना करनार ज्ञानी
जाणे छे के अहा! हुं तो ज्ञानमूर्ति छुं, ज्ञानस्वभावनी भावनामां राग–द्वेष छे ज नहि;
तो राग वगर हुं कोने मित्र मानुं? ने द्वेष वगर हुं कोने शत्रु मानुं? मित्र के शत्रु तो
राग–द्वेषमां छे. ज्ञानमां मित्र–शत्रु केवा? ज्ञानमां राग–द्वेष नथी, तो राग–द्वेष विना
मित्र के शत्रु केवा? आ रीते ज्ञानभावनारूपे परिणमेला ज्ञानी कहे छे के मारा
चिदानंदस्वरूपने देखतांवेंत ज राग–द्वेष एवा क्षीण थई गया छे के जगतमां कोई मने
मित्र के शत्रु भासता नथी, जगतथी भिन्न मारुं ज्ञानानंदस्वरूप ज मने भासे छे.
जुओ, आवा आत्मस्वरूपनी भावना ते ज वीतरागी शांतिनो उपाय छे, ने वीतरागी
शांति ते ज भवना अंतनो उपाय छे; माटे मुमुक्षुए वारंवार आवा आत्मस्वरूपनी
भावना करवी.
प्रश्न:– तमे भले बीजाने शत्रु के मित्र न मानो, पण बीजा जीवो तो तमने शत्रु के मित्र
मानता हशेने?
उत्तर:– हुं तो बोधस्वरूप अतीन्द्रिय आत्मा छुं; जेओ अतीन्द्रिय आत्माने नथी
जाणता एवा अज्ञ जीवो तो मने देखता ज नथी, तेओ मात्र आ शरीरने देखे छे पण
मने नथी देखता, तेथी तेओ मारा शत्रु के मित्र नथी. तेओ आ शरीरने शत्रु के मित्र
माने तो मानो, तेथी मने शुं? हुं तो चैतन्य छुं; मने तो तेओ देखता ज नथी, तो देख्या
वगर शत्रु के मित्र क््यांथी माने? जेने जेनो परिचय ज नथी ते तेने शत्रु के मित्र
क््यांथी माने? अज्ञ जनोने बोधस्वरूप एवा मारा आत्मानो परिचय ज नथी, तेमना
चर्मचक्षुथी तो हुं अगोचर छुं, तेओ बिचारा पोताना आत्माने पण नथी जाणता तो
मारा आत्माने तो क््यांथी जाणे? अने मने जाण्या वगर मारा संबंधमां शत्रु–
मित्रपणानी कल्पना क््यांथी करी शके?
अने, आत्माना स्वरूपने जाणनारा विज्ञ जनो तो कोईने शत्रु–मित्र मानता
नथी; तेओ तो मने पण ज्ञानस्वरूपे ज देखे छे एटले मारा संबंधमां तेमने पण शत्रु–
मित्रपणानी कल्पना थती नथी. सर्वे जीवोने ज्ञानस्वरूप जाणवामां अपूर्व समभाव छे.
सर्व जीव छे ज्ञानमय, एवो जे समभाव,
ते सामायिक जाणवुं, भाखे जिनवरराय.