Atmadharma magazine - Ank 380
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २५०१ आत्मधर्म : २१ :
जुओ, आ ज्ञानीनी वीतरागी भावना! पोते पोताना आत्माने बोधस्वरूप
देखे छे ने जगतना बधाय आत्माओ पण एवा बोधस्वरूप ज छे एम जाणे छे, तेथी
पोताने कोई प्रत्ये शत्रु–मित्रपणानी बुद्धि रही नथी, तेमज बीजा मने शत्रु–मित्र
मानता हशे एवुं शल्य रह्युं नथी; एटले वीतरागी शांति थाय छे.
जुओ, आ परमात्मा थवा माटेनी भावना; देहथी ने रागथी पार, जेवा
परमात्मा छे तेवो ज हुं छुं–एवी भावना पूर्वे कदी जीवे भावी नथी. ‘ज्ञान–आनंदनो
पिंड परमात्मा हुं छुं’
–अप्पा सो परम अप्पा–एवी द्रढ भावनावडे तेमां एकत्वबुद्धि
थतां अपूर्व आनंदनुं स्वसंवेदन थाय छे. ‘हुं मनुष्य छुं’ ईत्यादि भावना जेम द्रढपणे
घूंटाई गई छे तेम ‘हुं मनुष्य नहि परंतु हुं तो देहथी भिन्न ज्ञानशरीरी परमात्मा छुं’
–एवी भावना द्रढपणे घूंटावी जोईए,–एवी द्रढभावना थवी जोईए के तेमां ज
अभेदता भासे, तेमां ज पोतापणुं भासे; ने देहादिमां क््यांय पोतापणुं न भासे;
स्वप्नमां पण एम आवे के हुं चिदानंद परमात्मा छुं...अनंत सिद्धभगवंतोनी साथे हुं
वसु छुं. ‘शरीर ते हुं छुं’ एम स्वप्ने पण न भासे. आ रीते आत्मभावनाना द्रढ
संस्कारवडे तेमां ज लीनता थतां आत्मा पोते परमात्मा थई जाय छे. परमात्मस्वरूपनी
भावनानुं आ फळ छे; केमके– ‘जेवी भावना तेवुं भवन. ’
अरे, जीव! चैतन्यने चूकीने बहारमां शरीर, लक्ष्मी, कुंटुंब वगेरेने अभयस्थान
मानीने तेनो तुं विश्वास करी रह्यो छे, ते तो भयस्थान छे, बहारमां तने कोई शरण
नथी. अंतरमां चैतन्यस्वभाव ज परम शरण छे; तेने भयस्थान मानीने तुं तेनाथी दूर
भागे छे पण अरे मूढ! तारा आत्मा जेवुं अभयस्थान जगतमां कोई नथी.
मूढ जीव विश्वस्त छे ज्यां, ते ज भयनुं स्थान छे;
भयभीत छे जे स्थानथी, ते तो अभयनुं धाम छे.
अरे! तारुं चैतन्यतत्त्व भयनुं स्थान नथी, ते मूंझवणनुं स्थान नथी, दुःखनुं
स्थान नथी; तारुं चैतन्यतत्त्व अभयपदनुं स्थान छे...शांतिस्वरूप छे...आनंदनुं धाम छे.
आवा आत्मतत्त्व सिवाय बहारमां तने कोई पण चीज शरण नथी, तने बीजुं कोई
निर्भयतानुं स्थान नथी. एक चैतन्यपद ज अभय छे...ते ज शरणनुं स्थान छे...माटे
निर्भयपणे तेमां प्रवर्तो...एम ‘स्वामी’ नो उपदेश छे.
अरे, ईन्द्रियविषयो तो एकांत भयनुं–दुःखनुं ज स्थान छे, ने आ अतीन्द्रिय
चिदानंदस्वरूप आत्मा ज अभयस्थान अने सुखनुं धाम छे. चैतन्यनी सन्मुखतामां