पोताने कोई प्रत्ये शत्रु–मित्रपणानी बुद्धि रही नथी, तेमज बीजा मने शत्रु–मित्र
मानता हशे एवुं शल्य रह्युं नथी; एटले वीतरागी शांति थाय छे.
पिंड परमात्मा हुं छुं’
घूंटाई गई छे तेम ‘हुं मनुष्य नहि परंतु हुं तो देहथी भिन्न ज्ञानशरीरी परमात्मा छुं’
–एवी भावना द्रढपणे घूंटावी जोईए,–एवी द्रढभावना थवी जोईए के तेमां ज
अभेदता भासे, तेमां ज पोतापणुं भासे; ने देहादिमां क््यांय पोतापणुं न भासे;
स्वप्नमां पण एम आवे के हुं चिदानंद परमात्मा छुं...अनंत सिद्धभगवंतोनी साथे हुं
वसु छुं. ‘शरीर ते हुं छुं’ एम स्वप्ने पण न भासे. आ रीते आत्मभावनाना द्रढ
संस्कारवडे तेमां ज लीनता थतां आत्मा पोते परमात्मा थई जाय छे. परमात्मस्वरूपनी
भावनानुं आ फळ छे; केमके– ‘जेवी भावना तेवुं भवन. ’
नथी. अंतरमां चैतन्यस्वभाव ज परम शरण छे; तेने भयस्थान मानीने तुं तेनाथी दूर
भागे छे पण अरे मूढ! तारा आत्मा जेवुं अभयस्थान जगतमां कोई नथी.
भयभीत छे जे स्थानथी, ते तो अभयनुं धाम छे.
आवा आत्मतत्त्व सिवाय बहारमां तने कोई पण चीज शरण नथी, तने बीजुं कोई
निर्भयतानुं स्थान नथी. एक चैतन्यपद ज अभय छे...ते ज शरणनुं स्थान छे...माटे
निर्भयपणे तेमां प्रवर्तो...एम ‘स्वामी’ नो उपदेश छे.