संतोनो उपदेश छे.
जीव! हवे तारा ज्ञानचक्षुने उघाड रे उघाड!! ज्ञानचक्षु उघाडीने तुं जो के तारो स्वभाव
केवो मजानो आनंदरूप छे! ते स्वभावना साधनमां जराय कष्ट नथी, ने बाह्य विषयो
तरफनुं वलण एकांत दुःखरूप छे, तेमां स्वप्नेय सुख नथी.–आम विवेकथी विचारीने
तारा अंर्तस्वभाव तरफ वळ, ने बाह्य विषयोमां सुखबुद्धि छोडीने तेमनाथी निवृत्त
था...निवृत्त था. नित्य निर्भय स्थान अने सुखनुं धाम तो तारो आत्मा ज छे.
सुखनुं धाम कोई होय तो मारुं चैतन्यपद ज छे–एम विश्वास करीने, निर्भयपणे
स्वभावमां झूक...स्वभावनी समीप जतां तने पोताने खबर पडशे के अहा! आ तो
महा आनंदनुं धाम छे, आनी साधनामां कष्ट नथी पण उल्टुं ते तो कष्टना नाशनो
उपाय छे...आ ज मारुं निर्भयपद छे, –आम स्वपदने देखतां, पूर्वे कदी न थयेली एवी
तृप्ति ने शांति थाय छे.
उपयोगनुं वलण तेना तरफथी खसेडी आत्मस्वभावमां करवानुं छे. पहेलांं पोताना
सुख नथी...अंतरमां उपयोगनो झूकाव ते ज सुख छे. आवा निर्णयपूर्वक उपयोगने
अंतरमां एकाग्र करवो ते ज परम आनंदना अनुभवनी रीत छे. ए रीते उपयोगने
अंतरमां एकाग्र करतांवेंत पोतानुं परमात्मतत्त्व पोताने साक्षात् देखाय छे, अनुभवाय
छे, ने अतीन्द्रिय वीतरागी अपूर्व शांति वेदाय छे. तेथी श्रीगुरु वारंवार कहे छे के–
आवी अपूर्व शांति पामवा माटे आत्माने ओळखो.