Atmadharma magazine - Ank 380
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 26 of 45

background image
: जेठ : २५०१ आत्मधर्म : २३ :
भावश्रुतवडे ज्ञानस्वरूप आत्माने जे जाणे ते श्रुतकेवळी
[श्रुतपंचमी अने आपणी भावना]
जेठ सुद प ना रोज श्रुतपंचमीनो महा मंगळ दिवस छे. सत्श्रुतनी आराधना
वडे आत्मामां सम्यक् श्रुतज्ञान प्रगट करीने मोक्षमार्ग प्रगट करवो ते ज मंगळ छे, ते
ज साची ज्ञानआराधना छे.
‘श्रुतज्ञान’ कहेतां लोकोनी द्रष्टि बाह्यमां शास्त्रना लखाण उपर जाय छे;
शास्त्रना लखाणना आधारे श्रुतने टकेलुं माने छे; परंतु श्रुतज्ञान ए तो ज्ञान छे, अने
ज्ञान तो आत्माना आधारे छे–एम अंतरात्मद्रष्टि कोई वीरला ज करे छे.
*
एकवार कोई जिज्ञासुए गुरुदेवने प्रश्न पूछयो–
‘भरतक्षेत्रमां अत्यारे केटलुं श्रुतज्ञान विद्यमान छे? ’
* उत्तरमां गंभीरताथी गुरुदेवे कह्युं–भरतक्षेत्रमां विचरता सम्यग्ज्ञानी जीवोमां
जे जीवना श्रुतज्ञाननो उघाड सर्वथी वधारे होय तेटलुं श्रुतज्ञान विद्यमान छे अने
बाकीनुं विच्छेद छे. भले शास्त्रमां शब्दो लखेला विद्यमान होय, परंतु जो तेनो आशय
समजनार कोई जीव विद्यमान न होय तो ते विच्छेदरूप ज छे. एटले ‘श्रुतज्ञान’
आत्माना आधारे टकेलुं छे, नहि के शब्दोना आधारे.
सम्यग्ज्ञानी जीवो श्रुतनी साक्षात् मूर्ति छे. तेवा जीवोनी वाणीनी उपासना ते
श्रुतनी ज उपासना छे. श्रुतज्ञानी जीवनी वाणी ते श्रुतनुं सीधुं निमित्त छे; तेने
तत्कालबोधक कही छे.
साक्षात् श्रुतनी मूर्ति एवा सम्यग्ज्ञानी पुरुष पासेथी ज सत्श्रुतनी प्राप्ति थाय.
एक वखत पण साक्षात् ज्ञानी पासेथी सत् सांभळ्‌या वगर एकला शास्त्रमांथी पोतानी
मेळे कोई पण जीव सत् समजी शके नहि. जो वर्तमान तेवा ज्ञानीनो समागम न मळ्‌यो
होय तो पूर्वे करेला ज्ञानीना समागमना संस्कार याद आववा जोईए. पण ज्ञानीनो
उपदेश सांभळ्‌या वगर कोई पण जीवने सम्यग्दर्शन थाय ज नहि.
श्रुतज्ञाननुं प्रयोजन शुद्धात्माने जाणवानुं छे; श्रुतज्ञान वडे जे जीव पोताना
शुद्धात्माने जाणे छे तेओने केवळीभगवानो ‘श्रुतकेवळी’ कहे छे–एम समयसारजीमां