Atmadharma magazine - Ank 380
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २५०१ आत्मधर्म : २५ :
गुफामां एक महामुनि धरसेनाचार्य ध्यान करता हता. तेओ अंगो अने पूर्वोना
एकदेशना ज्ञाता हता. तेओ महा विद्वान अने श्रुतवत्सल हता. एकवार तेओश्रीने
एवो भय उत्पन्न थयो के हवे अंग–श्रुत विच्छेद थई जशे...आथी तेओने विकल्प
उठयो के श्रुतज्ञान अविच्छिन्नपणे जयवंत रहे! अने श्रुतनुं अविच्छिन्नपणे वहन करी
शके एवा पुष्पदंत मुनि अने भूतबलि मुनि ए बे समर्थ मुनिराजो धरसेनाचार्य पासे
आव्या, तेओने आचार्यदेव पासेथी जे श्रुत मळ्‌युं ते पुस्तकारूढ कर्युं, अने लगभग
१८०० वर्ष पहेलांं जेठ सुद प ना रोज ए पुस्तक (षट्खंडागम)नी भूतबलि
आचार्यदेवनी हाजरीमां चतुर्विध संघे अंकलेश्वरमां महान पूजा–प्रभावना करी हती.
त्यारथी ते तिथिए श्रुतनी पूजा अने महोत्सव थाय छे. अने ते दिवस श्रुतपंचमी
तरीके प्रसिद्ध छे. जैनशासनमां आचार्य भगवंतोनी परम कृपाथी ए पवित्र श्रुतनो
लाभ आजे पण आपणने मळे छे.
त्यारपछी अध्यात्मशास्त्रो रचायां. आजथी लगभग १८०० वर्ष पहेलांं
महासमर्थ आचार्य भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे समयसार वगेरे परम अध्यात्म
शास्त्रोनी रचना करी; तेमां सर्वज्ञदेवोनी दिव्यवाणीनुं रहस्य समावी दीधुं, अने ए
अपूर्व श्रुतनी प्रतिष्ठा वडे तेओश्रीए बार अंग अने चौद पूर्वना विच्छेदने भूलावी
दीधो. स्वानुभूतिनो अगाध वैभव आचार्यदेवे ते शास्त्रोमां भर्यो छे.
आ रीते, जेम निश्चय श्रुतज्ञान आजे अविच्छिन्नपणे वर्ते छे तेम, व्यवहार
श्रुत (द्रव्यश्रुत) पण अविच्छिन्नपणे वर्ती रह्युं छे. परंतु–
आजे आपणी पासे विपुल श्रुतभंडार शास्त्ररूपे विद्यमान होवा छतां, –तेनो
अंतरंग मर्म तो श्रुतज्ञानी पुरुषोना हृदयमां भरेलो छे. श्रीमद् राजचंद्रजी कही गया छे
के शास्त्रमां मार्ग कह्यो छे, पण तेनो मर्म तो ज्ञानी पासे छे; ज्ञानीना समागमे
शास्त्रनो मर्म समजीने जे शुद्धात्मानी स्वानुभूति करे छे तेना आत्मामां श्रुतज्ञान
सदाय जीवंत छे; तेने श्रुतनो कदी विरह नथी.
सत्श्रुतना एकेक सूत्रमां भरेला बार अंग अने चौद पूर्वना मूळभूत रहस्योने
तो साक्षात् श्रुतमूर्ति ज्ञानीओ ज प्रगट करी शके. आजे एवा श्रुतमूर्ति ज्ञानी–संतो
पासेथी आपणने ए श्रुतनुं रहस्य मळी रह्युं छे ते आपणुं सौभाग्य छे...एवा
श्रुतमूर्तिनी उपासना वडे सत्श्रुतनी प्राप्ति थाय छे. ने मोक्षमार्ग खुले छे. आवुं
आत्महितकारी सत्श्रुत सदाय जयवंत रहीने जगतनुं कल्याण करो–ए ज मंगळ भावना!!!