Atmadharma magazine - Ank 381
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : अषाढ : २५०१
पोपटिया ज्ञानवडे दुःखमांथी
आत्मानी रक्षा नहि थाय.
चैतन्यपरिणमन वडे ज आत्मानी रक्षा थशे.
आत्माने समजाय अने जे समजतां आत्माने शांति थाय–एवी आ वात छे,
एककोर वीतरागी शांतरसनो दरियो, बीजीकोर संसारना रागरूपी दावानळ,–ते बंनेने
भिन्न जाणनारुं सम्यग्ज्ञान रागना दावानळने बुझावी नांखे छे, ने आत्माने शांतिमां
ठारे छे. ज्यां आवुं सम्यग्ज्ञान थयुं त्यां ज्ञानीने रागनी मजा ऊडी गई, हवे तेने
ज्ञाननी अतीन्द्रिय शांतिमां ज मजा आवे छे. आवी शांतिना वेदन वगर आत्माने कदी
कषायो शांत पडे ज नहीं,–भले त्यागी थाय, व्रत पाळे के शास्त्रोनुं रटण करे,–ए तो
बधुं पोपटियुं ज्ञान छे.
* पोपटीयुं ज्ञान एटले शुं?
एक हतो पोपट. तेना मालिके तेने बोलतां शीखडाव्युं के ‘बिल्ली आवे तो ऊडी
जवुं....बिल्ली आवे तो ऊडी जवुं....’ एकवार खरेखर बिलाडी आवी, ने पोपटने
मोढामां पकड्यो, तोपण बिलाडीना मोढामां पड्यो–पड्यो पण ते पोपट गोखे छे के
‘बिल्ली आवे तो ऊडी जवुं....बिल्ली आवे तो....’ ए गोखवुं शुं कामनुं! ए
गोखणपट्टीथी कांई पोतानी रक्षा थती नथी. तेम अंदर चैतन्यतत्त्व शुं छे तेना भान
वगर “शास्त्रमां आम कह्युं छे, रागने दुःखदायक कह्यो छे, आत्माने ज्ञानस्वरूप कह्यो
छे” एम पोपटनी जेम रटया करे के अंदर तेवा विकल्पो कर्या करे, पण खरेखर
विकल्पथी पार थईने अंतरना चैतन्यतत्त्वमां परिणाम जोडे नहि तो शांति क््यांथी
थाय? बिलाडीना मोढानी जेम ते मिथ्यात्वना मोढामां ज ऊभो रहीने गोखे छे के
‘विकल्पथी जुदा पडवुं...ज्ञानरूप थवुं’ पण खरेखर जुदो तो पडतो नथी, ज्ञानरूप थतो
नथी, तो एकला शास्त्र गोख्ये कांई शांतिनुं वेदन थाय नहीं; अंदर तेवा भावरूप
परिणमन थवुं जोईए. अने जेनी चेतना रागथी जुदी पडी गई छे ने सम्यग्ज्ञानरूप
परिणमन थयुं छे तेणे ‘रागथी जुदो छुं...’ एम गोखवुं न पडे; ज्ञानने टकाववा माटे
विकल्प न करवा पडे. जेम कोई पोपटने ‘बिलाडी आवे तो ऊडी जवुं’ एम बोलतां
भले न आवडे,–पण बिलाडीनो प्रसंग आवे त्यां पोते दूर भागी जाय तो तेनी रक्षा ज
थाय छे; तेम शास्त्रभणतर भले झाझुं न होय, पण राग अने ज्ञाननी भिन्नता जाणीने
जेनी परिणति चैतन्यभावरूपे परिणमी गई छे तेनुं ज्ञान तो दरेक प्रसंगे विकल्पथी
जुदापणे ज चैतन्यमां वर्ते छे, एटले जन्म–मरणथी तेनी रक्षा थाय छे.