: अषाढ : २५०१ आत्मधर्म : १९ :
हुं कर्ता थईने बीजाना द्रव्य–गुण–पर्यायमां कांई करुं,
के बीजो कर्ता थईने मारा द्रव्य–गुण–पर्यायमां कांई करे,
–एवो स्व–परनी एकतानो मोह धर्मीजीवने जरापण थतो नथी. माटे मुमुक्षुए
स्व–परना विभागनी सिद्धि माटे पोताना आवा द्रव्य–गुण–पर्यायमय स्वरूप–
अस्तित्वने पदे–पदे अवधारवुं–निश्चित करवुं–एम जिनप्रवचननो उपदेश छे.
चेतन के अचेतन–बधाय पदार्थो पोतपोताना उत्पाद–व्यय–धु्रवस्वभाववाळा छे;
ते स्वभावमां ज तेमनुं अस्तित्व छे.
मारा उत्पाद–व्यय–धु्रवस्वभावने हुं परथी भिन्न जाणुं छुं, मारा स्वभावमां ज
मारुं अस्तित्व छे.
–आवी भिन्नता जाणनारुं ज्ञान पोताना अगाध–गंभीर स्वरूपने पोतामां ज
देखतुं थकुं तेनी अतीन्द्रिय शांतिने वेदे छे; एटले सम्यग्ज्ञान छे ते अतीन्द्रिय आनंदनी
छापवाळुं छे.
अहो, जुओ तो खरा सर्वज्ञना मार्गनुं विज्ञान! पदार्थना स्वरूपनुं आ विज्ञान
जीवने मोह दूर करीने वीतरागता करावे छे, वीतरागता करावीने अतीन्द्रिय सुख आपे
छे. जिनमार्गनुं आवुं वीतरागी विज्ञान निरंतर अभ्यास करवा जेवुं छे.
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* नुतन जीवननी शरूआत, ने पूर्वजीवननो अंत तेने लोको मृत्यु
अथवा जन्म कहे छे.
* ‘मृत्यु’ ए तो आत्मानी पर्यायनुं परिवर्तन छे, तेमां कांई
आत्मानो नाश नथी थई जतो.
* मृत्यु ए तो नुतनजीवननो प्रारंभ छे–तो पछी तेमां भय शो?
उत्साहथी नवुं जीवन शरू करो.
* आ भवनी पूर्णता (मरण), अने बीजा भवनी (–के मोक्षनी)
शरूआत (नवुं जीवन) तेनी वच्चे कांई जराय आंतरुं नथी;
एटले जीवनी जीवनधारानो प्रवाह अनादिअनंतकाळमां वच्चे
क््यांय क्षणमात्र पण तूटतो नथी. जीवनतत्त्वनी आवी सळंगता
देखनारने मरणभय होतो नथी.