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पामी लईए!
तेना अनंत गुणोनो स्वाद अनुभूतिमां आवी जाय छे; पछी निरंतर कोई अपूर्व शांति
वेदाय छे. सम्यग्दर्शनमां वीतरागता छे. सम्यग्दर्शन थतां अपूर्व हित अने मोक्षनो
मार्ग शरू थई जाय छे. एने माटे वारंवार जिज्ञासाथी सत्संग अने अनुभूतिनो प्रयोग
जरूरी छे. ए ज संतगुरुओनी शिखामण छे, ए ज तेमना आशीर्वाद छे. अने जे एम
करे तेणे ज देव–गुरुने साचा स्वरूपे ओळख्या कहेवाय, ने तेनुं ज मनुष्यपणुं सार्थक
थाय.
सम्यग्दर्शननी अनुभूति न थाय त्यांसुधी आत्मानी लगनीथी वधु ने वधु रसपूर्वक
निरंतर तेनो प्रयत्न कर्या ज करवो. आत्मानी साची लगनी अने साची भावना कदी
निष्फळ जता नथी, तेनुं उत्तमफळ आवे ज छे. माटे ऊंडीऊंडी धगशथी आत्मस्वभावनी
साची समजणनो ने तेनी अनुभूतिनो प्रयोग करवामां लाग्या रहेवुं–ते ज
सम्यग्दर्शननो साचो–सरळ ने सुखकर उपाय छे. जैनधर्म पामीने जेने आत्मस्वभावनी
साची रुचि जागी छे ने सम्यग्दर्शननो महिमा जाणीने तेनी झंखना थई छे तेनो प्रयत्न
कदी नकामो नहि जाय. चैतन्यस्वभावनी रुचिपूर्वक तेनुं ज्ञान अने अनुभूति करवा
माटे जे वारंवार अभ्यास करे छे ते जीवने क्षणेक्षणे मिथ्यात्वनो रस तूटतो जाय छे ने
चैतन्यनो रस वधतो जाय छे, तेनी एकक्षण पण नकामी नथी जती, मोहने तोडवानुं
कार्य क्षणेक्षणे तेने थया ज करे छे. जेने स्वभावनी होंश जागी, ने ज्ञाननी धारा
स्वभावसन्मुख उपडी ते जीवने अनंतकाळमां पूर्वे नहि थयेल एवी अपूर्व निर्जरा शरू
थई जाय छे. एवा जीवोने माटे श्री पद्मनंदीमुनिराजने कह्युं छे के –