: अषाढ : २५०१ आत्मधर्म : ३१ :
जो–जो!
र त्न फें की दे शो न हि
एक माणस दरियाकिनारे बेठो हतो.
एना हाथमां अचानक एक थेली आवी. अंधकारमां थेलीना गोळ पांचिका साथे
ते रमत करवा लाग्यो; एक पछी एक पांचिको लईने समुद्रमां फेंकवा लाग्यो....फेंकता–
फेंकता छेल्लो पांचिको हाथमां लईने ज्यां फेंकवा जाय छे त्यां तो कोई सज्जन पुरुषे
अवाज कर्यो; सबुर! सबुर! फेंकी दईश नहि...तारा हाथमां छे ते पत्थर नथी, ए तो
घणो किंमती हीरो छे!
थोडो प्रकाश थयो हतो; सज्जनना वचन उपर विश्वास लावीने प्रकाशमां ते
माणसे हाथमां रहेल वस्तु सामे जोयुं तो ते आभो ज बनी गयो....झगझगाट करतुं
महान रत्न तेना हाथमां हतुं. ते विचारवा लाग्यो–अरेरे, हुं केवो मूर्खो! आवा रत्नोनी
तो आखी थेली भरी हती ने में अज्ञानपणे मुर्खाईथी रमतमां ने रमतमां ते बधाय
रत्नो दरियामां फेंदी दीधा...अरेरे! हाथमां आवेला अमूल्य निधानने अज्ञानथी हुं
गुमावी बेठो!–आम ते रूदन करवा लाग्यो.
त्यारे सज्जने तेने कह्युं: भाई तुं मुंझा मा! तुं बधुं नथी हारी बेठो....हजी पण
एक रत्न तारा हाथमां छे. ते रत्न पण एवुं किंमती छे के तुं तेनी किंमत समजीने
बराबर सदुपयोग कर तो आखी जींदगी तने सुखसम्पत्ति मळी रहेशे आ एक रत्नथी
पण तारुं कार्य सरी जशे. माटे, जे रत्नो गया तेनो अफसोस छोडीने, हजी जे रत्न
हाथमां छे तेनो सदुपयोग करी ले. ‘जाग्या त्यांथी सवार. ’
[ते माणसे हाथमां बचेला एक रत्ननो सदुपयोग कर्यो ने ते सुखी थयो.)
वीर बंधुओ! आ वात कोनी छे–खबर छे? बीजा कोईनी नहि पण तमारा
पोताना जीवननी ज आ वात छे.
‘हें! ’–जी हा! सांभळो –
तमे आ संसारसमुद्रना किनारे बेठा छो. हजी ज्ञानसूर्य ऊग्यो नथी एटले
अंधारुं छे.