Atmadharma magazine - Ank 381
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: ३२ : आत्मधर्म : अषाढ : २५०१
जेम ते माणसना हाथमां रत्नभरेली थेली आवी, तेम तमने आ संसारमां
घणी–घणीवार रत्नचिंतामणि जेवा मनुष्यअवतार मळ्‌या. पण ते मनुष्यअवतारमां शुं
करवा जेवुं छे तेना भान विना, बेभानपणे विषय–कषायोनी रमतमां ने रमतमां तमे
मनुष्यभवरूपी रत्नने संसारना दरियामां फेंकी दीधुं; एक पछी एक–एम अनंता
मनुष्यभवने दरियामां फेंकी दीधा...ने व्यर्थ गुमाव्या. हजी आ अमूल्य मनुष्यभव
तमारा हाथमां छे...
ज्ञानी–संतो तमने साद पाडीने कहे छे के सबुर! सबुर! आ मनुष्यभवने
विषय–कषायोमां फेंकी न दईश. आ मनुष्यअवतार कांई विषयकषायो माटे नथी, आ
मनुष्यअवतार तो आत्मानुं अपूर्व कल्याण करवा माटे चिंतामणि–रत्न समान छे...
तारुं हित करवानो अवसर हजी तारा हाथमां छे,–जो जे! फेंकी न देतो!
जैनधर्मना सत्य देव–गुरु उपर जेने विश्वास छे अने जेने मुमुक्षुपणानो कंईक
प्रकाश जाग्यो छे–एवो जिज्ञासु जीव ज्यां पोताना जीवननो (अनंतभवनो) विचार
करे छे त्यां ते आभो बनी जाय छे के अरे! केटला बधा भव में नकामा फेंकी दीधा?
आवा मनुष्यअवतारमां आवा मजाना देव–गुरु–धर्म मने मळ्‌या छे–ते अमूल्य रत्नो
छे. मारा हाथमां आवा रत्नो आव्या छे. हजी मनुष्यभवमां हितनो अवसर छे. तो हवे
आ अवसरने हुं पापमां नहीं गुमावुं. अरेरे, में केवी मुर्खाई करी के आटला बधा भवो
अज्ञानपणे मुर्खाईथी में राग–द्वेषनी रमतमां नकामा गुमावी दीधा!
संत–ज्ञानी कहे छे: भाई! तुं मुंझा मां! हजी तुं बधुं नथी हारी बेठो....हजी पण
जैनधर्मनुं रत्न तारा हाथमां छे...ते रत्न केवुं किंमती छे के, तुं तेनी किंमत बराबर
समजीने सदुपयोग कर, एटले के तेमां कह्या प्रमाणे उत्तम आचरणवडे जीवादि तत्त्वोनुं
स्वरूप समज तो आखी जींदगी ने भविष्यमां सदाकाळ तने आत्मानी अपूर्व शांति
मळशे. अनंतभवनुं साटुं आ एक भवमां वळी जशे. तारा हाथमां रहेलो आ एक भव
पण आत्मानी साधना अर्थे वीताव तो तारुं अपूर्व कल्याण थई जशे. माटे जे भवो
वीत्या तेनो अफसोस छोडीने, हजी धर्मनो जे अवसर अत्यारे तारा हाथमां छे तेनो
उत्तम सदुपयोग करी ले. ‘जाग्या त्यांथी सवार.’
“देव–शास्त्र–गुरु रतन शुभ तीन रतन करतार”
एवुं रत्न हाथमां ज छे...तेनो सदुपयोग करीने सुखी थाव.
यह मानुषपर्याय, सुकुल, सुनिवो जिनवाणी;
ईहविध गये न मिले, सुमणि ज्यों उदधि समानी.