Atmadharma magazine - Ank 381
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २५०१ आत्मधर्म : ३५ :
नथी; अरिहंत ते आत्मा छे, तेमनुं द्रव्य चैतन्यमय छे, तेमना गुणो चैतन्यमय छे, ने
तेमनी पर्यायो पण शुद्ध चैतन्यमय छे,–तेमां क््यांय राग नथी. आवा शुद्ध द्रव्य–गुण–
पर्यायस्वरूप अरिहंतना आत्मा छे; तेने ओळखतां पोताना आत्मानुं परमार्थस्वरूप
पण तेवुं ज ओळखीने, आत्मा ज्यां अंतर्मुख थाय छे त्यां द्रव्य–गुण–पर्यायना भेदना
विकल्पोने पण ओळंगी जईने ते जीव निर्विकल्प अनुभूतिरूप सम्यग्दर्शन पामे छे.
–आ एक अपूर्वदशा छे.
अहा, सर्वज्ञ–अरिहंत! एमना महिमानी शी वात! एमने ओळखे त्यारे ज
साचुं जैनत्व शरू थाय छे.
मुमुक्षुबहेनोए अत्यंत प्रसन्नताथी कह्युं–वाह रे वाह माता! आजनो प्रसंग
अमारा माटे सोनेरी प्रसंग छे. आजना आपना सत्संगथी अमने सम्यक्त्वनी एवी
अपूर्व प्रेरणा मळी छे के हवे अल्पकाळमां ज अमे आपना आशीर्वादथी आत्माने
ओळखशुं ने सम्यक्त्व पामशुं.
माताजीए आशीर्वादपूर्वक कह्युं: हा, बहेन! ए ज करवा जेवुं छे. पुण्यवडे
लाखो–करोडो रूपियानो लाभ थाय तेना करतांय चैतन्यनो लाभ मळवो ते तो अमूल्य
छे; पैसाथी के पुण्यथी तेनी प्राप्ति थाय तेवी नथी, पुण्य अने पैसा बंनेथी पार अंतरनी
चैतन्यवस्तुना उल्लासपूर्वक तेनी प्राप्ति थाय छे; ने एकवार आवी वस्तुनो पोतामां
अनुभव थयो त्यां पोतामां आत्मानो एवो अचिंत्य निजवैभव देख्यो के जेनी पासे
आखा संसारना वैभवनी कांई ज किंमत नथी. पोतानो आवो वैभव प्राप्त करीने
ज्ञानीओ बीजाने देखाडे छे के अरे जीवो! तमे पण तमारा आत्माना आवा अद्भुत
वैभवने तमारामां देखो....देखो. चेतो रे चेतो! आवो अवसर फरी मळवो बहु दुर्लभ
छे.
–आ शरीर तो माटीनुं क्षणभंगुर पूतळुं छे. शणगारवाथी उपरथी ते सारुं लागे
छे, अंदर तो एकली अशुची भरी छे; ने तेमांय वृद्ध थाय त्यारे तो तेने शणगार पण
नथी शोभता. जीवनो साचो शणगार तो सम्यग्दर्शन–रत्न छे. जे आत्मानी साची
जिज्ञासा करशे ते जरूर सम्यग्दर्शन पामी शकशे. अत्यारे ज तेनो अवसर छे. जो अत्यारे
दरकार न करी तोपछी ज्यारे बूढापो आवी जशे त्यारे तो ईन्द्रियो शिथिल थई जशे,
आंख पण काम नहि करे, काने संभळाशे नहि, जिनमंदिरे जवामांये मुश्केली पडशे, घरमां
तारुं कोई मानशे नहि, तारुं घडपण बधाने बोजारूप लागशे, अनेक रोग अने तकलीफथी
शरीर घेराई गयुं हशे–त्यारे कई रीते आत्महितमां जागृत रहीश?–एम