: ४० : आत्मधर्म : अषाढ : २५०१
• पोताना समस्त गुण–पर्यायोने पोतामां ज समावीने •
एकत्वभावनामां झूलतो शुद्धआत्मा प्रशंसनीय छे
ज्ञानचेतना–लक्षण द्वारा जेणे पोताना आत्माने समस्त
परद्रव्योथी अत्यंत जुदो जाण्यो छे, अने परना संबंध वगरना
पोताना जे शुद्ध गुण–पर्यायरूप विशेषो, तेने पोतानामां ज
समावीने जेणे एकत्व प्राप्त कर्युं छे, ते एकत्वभावनामां झुलतो
शुद्धोपयोगी आत्मा धन्य छे–प्रशंसनीय छे. ए वात आचार्य
कुंदकुंदप्रभुए प्रवचनसारनी १२६ मी गाथामां बतावी छे. पू. गुरुदेव
सोनगढ पधारतांवेंत जेठ सुद सातमथी आवा एकत्वस्वरूप सुंदर
आत्मानुं श्रवण करतां मुमुक्षुओ अनेरी शांति अनुभवता हता.
आत्मानुं परद्रव्यथी भिन्नपणुं ने ज्ञानस्वरूपथी तन्मयपणुं नक्की करतां स्वज्ञेय–
स्वरूप शुद्धात्मतत्त्वनी उपलब्धि थाय छे, ते अभिनन्दनीय छे,–एम १२६ मी गाथामां
कह्युं छे.
शुद्धआत्मानी उपलब्धि कोने थाय छे? अथवा स्वज्ञेयरूप केवा आत्माने
जाणवाथी शुद्धआत्मानी प्राप्ति थाय छे–ते वात आ १२६ मी गाथामां आचार्यदेवे
अलौकिक रीते समजावी छे.
“ जे पुरुष ए रीते कर्ता–कर्म–करण अने कर्मफळ आत्मा एकलो ज छे एम
निश्चय करीने खरेखर परद्रव्यरूपे परिणमतो नथी ते ज पुरुष, परद्रव्य साथे संपर्क जेने
अटकी गयो छे अने द्रव्यनी अंदर पर्यायो जेने प्रलीन थया छे एवा शुद्धआत्माने
उपलब्ध करे छे.” (गाथा १२६ टीका)
ज्यां शुद्धद्रव्यनुं ज निरूपण होय, एटले के एकला पोताना आत्माने ज
स्वज्ञेयपणे जोवामां आवे, त्यां ते शुद्धद्रव्यमां परद्रव्यना संपर्कनो अभाव छे अने
पर्यायो द्रव्यनी अंदर प्रलीन थई गया छे तेथी आत्मा शुद्धपणे अनुभवमां आवे छे.
–अने ते प्रशंसनीय छे.
ज्ञानपर्यायने अंतरमां लीन करीने ज्ञानस्वरूप पोताना आत्माने स्वज्ञेय बनाव्यो,
त्यां स्वज्ञेयना एकत्वमां कर्ता–कर्म–करण अने तेनुं फळ ए बधुंय अभेदपणे समाई