
सेनाने नष्ट करनारो शुद्धनय, तेणे आत्माने परद्रव्योथी अत्यंत विविक्त कर्यो छे अने
पोताना समस्त ज्ञानादि विशेषोने सामान्यमां लीन कर्या छे.–आवा शुद्धनयवडे जेणे
पोताना शुद्धआत्मतत्त्वने उपलब्ध कर्युं छे–अनुभवमां लीधुं छे, ते आत्मा पोताना
सहज चैतन्यप्रकाशवडे प्रकाशमान रहेतो थको मुक्त थाय छे; तेथी ते अभिनंदनीय छे.
जीव प्रशंसनीय छे.
तेनो कर्ता नथी. सर्वज्ञ भगवाने केवळज्ञानवडे स्व–पर ज्ञेयोनुं जेवुं स्वरूप साक्षात्
जोयुं तेवुं दिव्यध्वनिरूप प्रवचनमां कह्युं, ने तेनो सार आ ‘प्रवचनसार’मां
आचार्यदेवे संघर्यो छे. तेमां आचार्यदेव कहे छे के चैतन्यरूप गुण–पर्यायोने
चेतनद्रव्यमां ज अंतर्लीन करीने केवळ आत्माने जाणतां निष्क्रिय (विकल्परहित)
चैतन्यमात्र भाव प्राप्त थाय छे एटले के मोहनो नाश थईने सम्यग्दर्शन थाय छे.
(प्र. गा. ८० टीका)
कहे छे के आत्माने परद्रव्य साथे ज्यां संपर्क छूटी गयो त्यां अशुद्धता न रही, शुद्ध
परिणमन थतां पर्यायो द्रव्यनी अंदर प्रलीन थई गई, एटले शुद्धआत्मानी ज
अनुभूति रही; ते अनुभूतिमां वीतरागी प्रशमरसनुं झरणुं झरे छे. आवा प्रशमनी
प्राप्ति ते ज ज्ञेयतत्त्वोने जाणवानुं फळ छे.
भावथी ते–रूपे परिणमे छे. अज्ञानदशा वखते तेना फळमां दुःखरूपे पण आत्मा पोते
एकलो ज पोतामां परिणमतो हतो, ते परिणमनमां कोई बीजुं न हतुं. अत्यारे स्व–
परनी भिन्नताना ज्ञानवडे, एकत्वरूप शुद्धआत्माने अनुभवतो थको अतीन्द्रियसुखरूपे
हुं पोते थयो छुं, मारा सुखपरिणमनमां हुं एकलो ज छुं, तेमां कोई बीजुं नथी.