Atmadharma magazine - Ank 381
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: ४२ : आत्मधर्म : अषाढ : २५०१
आ रीते धर्मी जाणे छे के, पहेलांं अज्ञानदशामां बंधमार्गमां, अने अत्यारे ज्ञानदशाथी
मोक्षमार्गमां हुं एकलो ज छुं, बीजा कोई साथे मारे कांई लागतुंवळगतुं नथी.
–जुओ, आ मोक्षमार्गी मुमुक्षुनो निश्चय! आमां आत्माना एकत्वनी
भावनावडे शुद्धअनुभूति छे, ने परना संपर्कनो अभाव छे. आवी दशाने मुमुक्षुदशा
कहेवाय. आत्माने परना संबंधवाळो ने रागवाळो अशुद्ध ज अनुभव्या करे, ने कहे के
अमने शुद्धआत्मानी घणी भावना छे,–तो एने साची मुमुक्षुता नथी कहेता; शुद्धात्मानी
साची भावना होय तो शुद्धतारूपे परिणम्या वगर रहे नहि ने तेना फळरूप अतीन्द्रिय
आनंदनो अनुभव थवा वगर रहे नहि. अहा, मुमुक्षु एटले तो मोक्षनो पंथी! एने
वळी परना संबंधनी भावना केवी? परना संबंध वगर, परथी सर्वथा भिन्न, पोताना
एकत्वमां झूलतो–परिणमतो ने शुद्धताने अनुभवतो ते आनंदथी मोक्षना पंथे चाल्यो
जाय छे.
वाह रे वाह! धन्य छे आत्मानी आवी दशाने!–ते प्रशंसनीय छे.
आत्मानी धर्मपरिणतिनो कर्ता आत्मा एकलो ज छे, बीजो कोई कर्ता नथी. तेम
तेना फळनो भोक्ता पण एकलो आत्मा ज छे, बीजो कोई भोक्ता नथी. पोताना
कारण–कार्य–फळ बधुं पोतामां ज एकमां ज समाय छे, जुदा नथी रहेता.–आवी
अनुभूतिनुं नाम एकत्वभावना छे. एकमां बंधन न होय, एकमां अशुद्धता न होय;
एटले परथी भिन्न पोताना एकत्वमां परिणमता ते जीवने बंधन के अशुद्धता थता
नथी; ते शुद्धरूपे परिणमतो थको मोक्षपदने पामे छे.–ते प्रशंसनीय छे.
* संसारमां तो दुःख ज होयने! *
संसार एटले ज दुःख;
ज्यारे आखो संसार ज दुःखरूप छे, त्यारे तेमां दुःखना एकेक
प्रसंगथी गभराया करवुुं–एना करतां तो संसारथी छूटो ज पडीने, संसार–
वगरनो कोई एवो भाव (सम्यक्त्वादिरूप) प्रगट करवो के जे स्वयं
सुखरूप होय.
बाकी संसारमां तो दुःख न आवे तो ज आश्चर्य!
संसार अने सुख ए बंनेनो मेळ क््यांथी मळे?
एकथी छोडावीने बीजामां लई जवा माटे तो जैनधर्म छे.