Atmadharma magazine - Ank 381
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: ४४ : आत्मधर्म : अषाढ : २५०१
ते धन्य छे कृतकृत्य छे शूर–वीर ने पंडित छे;
–सम्यक्त्व–सिद्धिकर अहो! स्वप्नेय नहि दुषित छे.
प्रश्न:–केवळीभगवानना गुणोनी स्तुति कई रीते थाय?
उत्तर:–आत्माना ज्ञानस्वभावमां एकाग्रतावडे मोहने जीतवाथी केवळीभगवाननी
साची स्तुति थाय छे. अतीन्द्रियज्ञानरूप थयेला सर्वज्ञनी स्तुति
अतीन्द्रियज्ञान वडे ज थई शके; ईन्द्रियो वडे के रागवडे थई शके नहि.
प्रश्न:–गृहस्थ सम्यग्द्रष्टिनो आत्मा खरेखर शेमां वसे छे?
उत्तर:–स्वघर एवुं जे पोतानुं शुद्ध चैतन्यतत्त्व तेना द्रव्य–गुण–पर्यायमां ज खरेखर
धर्मी वसे छे; रागमां के परमां पोतानो वास ते मानता नथी, तेने ते परघर
समजे छे.
प्रश्न:–गृहस्थाश्रममां रहेला जीवने आत्मानो अनुभव ने ध्यान होय?
उत्तर:–हा; धर्मीने गृहस्थपणामां पण आत्मानो अनुभव अने ध्यान होय छे; एना
वगर सम्यग्दर्शन ज संभवे नहि. गृहस्थने पांच गुणस्थान कह्यां छे, तेमां
चोथा गुणस्थानथी ज आत्मअनुभव थाय छे; त्यारथी जीव साचो जैनधर्मी
थाय छे; ने पछी व्रती थईने पंचम गुणस्थाननी शुद्धता प्रगट करतां तेने
श्रावकधर्मी कहेवाय छे. मुनिदशा तो तेनाथी पण ऊंची छे. सम्यग्दर्शन तथा
आत्मअनुभव वगर आवी कोई दशा होती नथी.
आवी आत्मअनुभूतिनुं स्वरूप बतावनार वीरशासन आपणे महाभाग्यथी
पाम्या छीए; तो महावीरभगवानना २५००–वर्षीय निर्वाणमहोत्सवमां आवी
आत्मअनुभूति जरूर करो, अने तेना द्वारा आत्मजीवन उज्वळ करीने जैनशासनने
शोभावो.
*
पर्याय वगरना एकांतध्रुवनुं ध्यान थई शके?
–ना; ध्यानतो ‘सत्’ नुं होय; ने सत् तो हंमेशां उत्पाद–व्यय–ध्रुवस्वरूप छे.
एवुं तो कोई सत् नथी के जे एकांत ध्रुव होय.
ज्यां ध्याता–ध्यान–ध्येयनो भेद नथी रहेतो त्यां ज साचुं ध्यान छे;
ज्यां ध्येय–ध्यान–ध्यातानो भेद छे त्यां ध्यान नथी.
* द्रव्य–गुण–पर्याय वच्चे कोई प्रकारे प्रदेशभेद छे?