: अषाढ : २५०१ आत्मधर्म : ४५ :
ना; तेमने प्रदेशभेद नथी; केमके द्रव्य पोते गुण–पर्यायस्वरूप छे, ने गुण–
पर्यायो पोते द्रव्यस्वरूप छे. द्रव्य–गुण–पर्यायनुं अस्तित्व एक छे, जुदाजुदा
त्रण अस्तित्व नथी. (प्रवचनसार)
अहो, संतोए वीतरागी जिनवाणीमां स्वानुभव करवा माटेनी घणी ज सरस
वात समजावी छे; अने हमणां ज अत्यारे–तत्काल ज तुं स्वानुभव कर–एवी सरस
प्रेरणा आपी छे; ते सांभळतां स्वानुभवनी भावनाने घणुं ज पोषण मळे छे. जीवननुं
सर्वस्व, अने एकमात्र ध्येय स्वानुभव छे. अने आवो स्वानुभव आ कपरा काळमांय
प्रत्यक्ष संतोना प्रतापे सुगम बन्यो छे.
* स्वानुभवनी वात सांभळतां ने अंतरमां तेनो प्रयोग करतां चैतन्यरसनुं
घोलन वधतुं जाय छे, ने रागनो रस छूटतो जाय छे.–ए ज धारानी पराकाष्टा
थतां भेदज्ञान थईने अपूर्व आनंदमय स्वानुभूति थाय छे.
* भाई! आत्माना अनुभवनी घणी झंखना छे–तो शुं करुं?
–ऊंडा गंभीर आत्मस्वरूपनी आनंदमय अनुभूति माटे, एकदम शांत थईने
परिणामने बधेथी हटावीने आत्मामां खूबखूब ऊंडे ऊतरी जा.
आत्मानी शांत–सुंदरता देखतां ज तारी झंखना पूरी थई जशे.
* आनंदमय आत्मा पोतामां ज जेने प्रसिद्ध थयो छे तेने बहारनी बीजी कई
प्रसिद्धिनुं काम छे? अने, बहारनी जगतमां गमे तेटली प्रसिद्धि हो पण जो
पोताना अंतरमां आत्माना आनंदनी प्रसिद्धि न थई तो तेने शो लाभ थयो?
* भूख्या रहेवुं सारूं पण रात्रे खावुं नहीं. भले तरस्यो रहेजे पण अळगण पाणी
पीश नहि. प्रतिकूळता सहजे, पण जैनधर्म छोडीने बीजे जईश मा.
* आजना युवानो कहे छे–भले अमे कुंवारा रहेशुं, पण जैन संस्कार छोडीने बीजे
नहि जईए.
......चर्चा......
एकवखत एक जैनने अने एक कर्मवादीने चर्चानो प्रसंग ऊभो थयो:–
* कर्मवादी कहे:– कर्म आत्माने विकार करावे छे एम तमे स्वीकारो तो आपणे
चर्चा करीए.