: र : आत्मधर्म : श्रावण : २५०१
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स्वानुभूति मंगळ छे; स्वानुभूति–सम्पन्न धर्मात्मा मंगळ छे;
एवा धर्मात्माना सन्माननो उत्सव मुमुक्षुओ ऊजवे–तेमां पण
स्वानुभूति तरफना वलणनी प्रधानता होय छे. अहा, आ काळे
स्वानुभूतिवाळा महात्मा जोवा मळवा–ए पण महान भाग्य छे, ने
एमनी स्वानुभूतिने ओळखीने जे पोते तेनी आराधना करे एनुं तो
अपूर्व कल्याण थाय छे; ते सज्जनो पोताना उपर करायेला उपकारने
कदी भूलता नथी.
–एवा परम उपकारी, स्वानुभूतिसंपन्न धर्मात्मा अने आ
बाळकना धर्ममाता, पू. बेनश्री चंपाबेनना जन्मोत्सव प्रसंगे आपणे
तेमना सन्माननो उत्सव उजवीए छीए. एक साधक जीवनुं खरूं
सन्मान करवा माटे, तेमणे करेली आत्मसाधनाने अने तेमनामां वर्तता
चैतन्यरूप साधकभावने ओळखवा जोईए. एवी ओळखाण माटे अहीं
६२ बोल पू. गुरुदेवना प्रवचनोमांथी आपीए छीए. तेना द्वारा
अचिंत्य महिमावंत ज्ञानीनी परिणतिने जे ओळखशे तेनुं कल्याण थशे.
(–ब्र. ह. जैन)
१. हे साधक! हे पूर्णानंदस्वरूपना पथिक! वीरनाथना शासनमां आवीने,
अंर्तस्वभावमां पेसीने सम्यग्दर्शन वडे निर्विकल्प चैतन्यना अजवाळा प्रगट
कर्या...ए तो तें महान कार्य कर्युं.
२. धर्मात्माए अनुभूतिरूपी गूफामां पेसीने चैतन्यना गुप्त चमत्कारने नीहाळ्यो छे;
साध्यने अंतरमां देख्युं छे; ने साधन पण पोतामां ज छे.
३. पूर्ण चैतन्यतेजनी प्रतीत करीने ते धर्मात्मा अल्पकाळमां केवळज्ञान लेवा माटे
परमात्मानी पेढीए चडयो; तेनुं ज्ञान सुज्ञानपणे झळकी ऊठयुं.
४. जेनी प्रीति–रुचि–वहालप अंतरना पूर्ण चैतन्यस्वभावमां ज पेसी गई छे ने
बीजे बधेथी वहालप हटी गई छे–ते ज्ञानी छे, तेनुं अंर्तपरिणमन
परमात्मपद तरफ ढळेलुं छे.