: श्रावण : २५०१ आत्मधर्म : ३ :
५. ज्ञानी–धर्मात्माने पंडितवीर्यनी स्फुरणा थई छे ने परभावोथी भिन्नता थई छे;
अनादिनी बालबुद्धि टळीने साधकदशारूप युवापणुं थयुं छे.
६. हे साधक संत! तारा पूर्ण चैतन्यतेज जेवा तने प्रतीतमां ने अनुभवमां आव्या
छे तेवा ज्यांसुधी पूर्ण प्रगट न थाय त्यांसुधी निरंतर ते चैतन्यतेजनुं ध्यान
करजे.
७. राग होवा छतां, धर्मीने रागथी चैतन्यनी भिन्नतानुं भान छे; मारो
आत्मस्वभाव जिनस्वरूप वीतराग छे–एवुं स्वसंवेदन तेने थई गयुं छे.
८. वांदरानुं नानुं बच्चुं होय, चकलुं होय के आठ वर्षनी बालिका होय, तेने पण
अंतरमां स्वसंवेदन थतां आवी अपूर्व दशा थाय छे. हे भव्यजीवो! एवी
धर्मदशा देखीने तेनी तमे अनुमोदना करजो.
९. जराक पण राग रहे ते केवळज्ञानने रोकनार छे, माटे हे साधक! चैतन्यना उग्र
ध्यानवडे संपूर्ण राग नष्ट करवा योग्य छे.
१०. साधक धर्मात्माने तो आवुं भान अने प्रयत्न चालु ज छे, पण तेने संबोधन
करवाना बहाने बीजा जीवोने तेनी अलौकिकदशा ओळखावे छे, के साधकदशा
केवी होय! साधकना अंतरमां तो सदाय मोक्षना आनंदनो महोत्सव चाले छे.
११. सम्यग्दर्शन प्रगटवानो पंथ पण आ ज छे के रागनी वहालप छोडीने, अत्यंत
सुंदर एवा चैतन्यस्वरूपमां प्रवेशीने तेनुं ध्यान करवुं; ने तेवी दशावाळा
धर्मात्माओने ओळखवा.
१२. अहा, ज्ञानीनी दशा अचिंत्य छे! चैतन्यशक्तिना स्पर्श वडे श्रद्धा–ज्ञान–
चारित्रनुं सुंदर परिणमन तेने थया करे छे; तेमां बीजा कोईनुं अवलंबन छे ज
नहीं. –अहो, निरालंबी चैतन्यतत्त्व अद्भुत छे!
१३. आवा निरालंबी चैतन्यनी पूर्णपरिणतिने पामेला परमात्मा (अरिहंत
भगवान अने सिद्धभगवान) पण निरालंबीपणे गगनमां बिराजे छे.
अरिहंतदेव गंधकूटीने स्पर्शता नथी.
१४. सम्यग्दर्शन थयुं त्यारथी ज ज्ञाननी धारा सम्यक्पणे वर्ते छे. त्यां राग अने
विकल्प होवा छतां ज्ञानीनी ज्ञानधारा ने रागने स्पर्शती नथी.
१५. ‘हुं शुद्ध ज्ञान छुं’ एवा ज्ञानमयभावपणे जे ज्ञान परिणम्युं तेमां हवे वच्चे
रागादि नहि आवे; राग जुदा ज्ञेयपणे रहेशे पण ज्ञान तेमां तन्मय नहि थाय.