: ४ : आत्मधर्म : श्रावण : २५०१
१६. ज्ञानीनुं कार्य ज्ञानमय ज छे, ज्ञानीनुं कार्य रागमय नथी. ज्ञानकार्य अने
रागकार्य बंनेनो कर्ता एक न होय. ज्ञानमय एवो ज्ञानी रागनो अकर्ता ज छे.
१७. ज्ञानीने स्वानुभवपूर्वक ज्ञाननी जे सम्यक्धारा प्रगटी ते सविकल्पदशा वखतेय
चालु रहे छे. समकितीने अविरती गृहस्थदशामांय ज्ञानधारा सतत वर्ती रही
छे, ‘ते ज्ञानधारा निरंतर निर्विकल्प छे. ’
१८. निर्विकल्प उपयोगनी श्रेणी (सातमा गुणस्थानथी उपरनी दशा) अत्यारे आ
काळना जीवोने नथी, पण सम्यग्ज्ञाननी अप्रतिहतधारा अत्यारना कोई–कोई
जीवोने छे; ते पण धन्य छे...तेमनुं दर्शन पण मंगळ छे.
१९. अत्यारे पण समकिती गृहस्थने के स्त्रीने एवुं धारावाही ज्ञान होय छे के वच्चे
अज्ञान आव्या विना अप्रतिहतधाराए केवळज्ञान लीधे छूटको. –अहो, एवा
धर्मी जीवो धन्य छे.
२०. साधकनी ज्ञानधारा केवी होय ते समयसारमां अलौकिक रीते आचार्यदेवे
ओळखाव्युं छे; ते ओळखे तो पोतामां ज्ञान अने रागनी धारा अत्यंत जुदी
पडी जाय.
२१. अहो, आ ‘समयसार’ एटले वर्तमानमां साक्षात् तीर्थंकरदेवना दिव्यध्वनिनो
सार! एमां तो भेदज्ञानना एवा मंत्र भर्या छे–के जे मंत्र एक क्षणमां ज्ञान
अने रागनी एकताने तोडी नांखे.
२२. निजस्वरूपना महिमामां लीन थवाथी शुद्धात्मानी अनुभूति थाय छे. आवी
अनुभूति थतां आत्मा समस्त परद्रव्यो अने परभावोथी दूर वर्ते छे.
२३. ज्ञानीने ज्यारथी सम्यग्दर्शन थयुं त्यारथी ज मिथ्यात्वरूप परपरिणति तो तेणे
छोडी छे, अने अस्थिरतारूप परपरिणतिने छोडवा माटे ते वारंवार
निजस्वरूपने स्पर्शे छे.
२४. अहो, आवा साधकजीवनुं स्वरूप विरला ज जाणे छे. एनुं श्रवण पण दुर्लभ छे.
आ चैतन्यहीरो कोण छे तेनी किंमत करनारा जीवो सदाय विरला छे; –छतां
अत्यारेय विद्यमान छे खरा.
२५. साधक ज्ञानीनी दशाने यथार्थपणे ओळखे तो स्वरूपने साधवानो मार्ग
ख्यालमां आवे. ज्ञानी कई रीते निजस्वरूपने साधी रह्या छे ते ओळखतां
पोताने पण तेवो मार्ग जरूर प्रगटे.