: श्रावण : २५०१ आत्मधर्म : ५ :
२६. जे जीव रागनी रुचि करे छे ते जीव, रागथी भिन्न एवी ज्ञानीनी परिणतिने
ओळखी शकतो नथी. पोते रागथी जुदो परिणमे तो ज ज्ञानीनी परिणतिने
साची रीते ओळखाय.
२७. आ बाजु ज्ञानानंदस्वभाव, सामी बाजु रागादि परभाव; आ बाजु आव्यो ते
मुक्त थाय छे, ने रागादि परभाव तरफ वळ्यो ते बंधाय छे.
२८. संतो अंतरनी चैतन्यगूफामां आनंदना अनुभवमां झूलता झूलता मोक्षने साधी
रह्या छे...परमात्मा एमनी द्रष्टिमां तरवरे छे; तेमणे परम–आत्मा साथे गोष्ठी
बांधीने राग साथेनी गोष्ठी तोडी नांखी छे.
२९. ज्ञानी रागथी दूर थई परमात्मस्वभावमां पेठा त्यां बंधन तो बहार रह्युं.
परमात्मस्वभावमां कर्मनो प्रवेश नथी; तेथी शुद्धनयवडे जे परमात्मस्वभावमां
ऊंडा ऊतर्या तेने बंधन नथी, ए तो मुक्तिसुखनो स्वाद चाखे छे.
३०. अहो, आ शुद्धात्मानुं अवलंबन ते ज परम शांतरसनुं पोषक छे. संतोए
स्वानुभव वडे प्रसिद्ध करीने ते सुगम करी दीधुं छे. –एवा संतोना उपकारने
सज्जनो केम भूले?
३१. स्वभावनो आश्रय करीने जेणे शुद्धअनुभूति प्रगट करी तेणे परम शांत
अतीन्द्रिय चैतन्यरस चाख्यो, अने सर्वशास्त्रनुं रहस्य तेणे प्राप्त करी लीधुं.
३२. सम्यग्द्रष्टिनुं चित्त शुद्धनयथी ओपतुं–दीपतुं छे; बहारमां देह भले सुंदर हो के
असुंदर, –पण जेने अंतरमां निर्मळअनुभूति प्रगटी ते कृतकृत्य छे, महान छे,
चैतन्यनी अत्यंत सुंदरताथी ते शोभे छे.
३३. शुद्ध आत्माने अवलंबनारी धर्मात्मानी चेतनापरिणति अत्यंत धीर छे, उदार
छे, गंभीर छे, पवित्र छे, अने एवी बळवान छे के समस्त कर्मोने मूळमांथी
उखेडी नांखे छे.
३४. धर्मात्मानुं साधकपणुं ने साध्य ए बंने अंतरमां ज समाय छे. साध्य, साधक ने
साधन त्रणे निर्विकल्पपणे पोतामां ज समाय छे, वच्चे बीजुं कोई साधन नथी.
३५. आ देहमां रहेलो चैतन्यप्रभु, बेहद ज्ञान–आनंदनी प्रभुताथी भरेलो छे, तेनुं
अंतरभान करीने ज्ञानीए रागथी भिन्न चैतन्यभगवानना भेटा कर्या छे, ते
अपूर्व धर्म छे.