: ६ : आत्मधर्म : श्रावण : २५०१
३६. ज्यां चैतन्यनी अत्यंत सुंदरताने जाणी त्यां ज्ञानीने धर्मधारा चाली, ते धारा
एवी अतूट छे के शुभाशुभपरिणाम वखतेय ते ज्ञानधारा छूटती नथी; ते
ज्ञानधारा अप्रतिहतपणे आगळ वधीने केवळज्ञान साथे ‘जोडणी’ करशे.
३७. शुद्ध उपयोग न होय त्यारे पण, अरे! ऊंघ वखतेय धर्मीने ज्ञानधारानो प्रवाह
सतत चाले ज छे, तेनुं ज्ञान अज्ञानरूप थई जतुं नथी. तेनी श्रद्धा अने चेतना
सदाय निर्विकल्प छे; तेनुं ईष्ट कार्य चालु ज छे.
३८. सम्यग्दर्शन थयुं त्यारथी ज ज्ञाननी धारा सम्यक्पणे वर्ते छे. विकल्प होवा छतां
तेनाथी भिन्नपणे ज्ञानधारा वर्ते छे; आवी ज्ञानधारामां अशुद्धतानो ने कर्मनो
अभाव छे.
३९. ‘हुं शुद्ध ज्ञान छुं’ –एवा अनुभवपणे जे ज्ञान परिणम्युं ते हवे ज्ञानपणे ज
रहेशे, तेमां वच्चे राग नहि आवे; राग जुदा ज्ञेयपणे रहेशे पण ज्ञान तेमां
तन्मय नहि थाय.
४०. स्वरूपमां निर्विकल्प उपयोग गणधरदेव जेवानेय अंतर्मुहूर्त करतां वधारे काळ
रहेतो नथी; परंतु ज्ञाननी सम्यक्धारा तो सविकल्पदशामांय समकिती–
अविरतीगृहस्थोने पण सतत चालु रहे छे.
४१. अहो वीरनाथ! आपनो मार्ग खरेखरो वीरतानो ज मार्ग छे; आपना मार्गमां
रागनी कायरता छूटीने वीतरागी–वीरता जागे छे, ने वीरपणे आत्मा मोक्षने
साधे छे.
४२. प्रभो! आपना मार्गमां चाली रहेला नानामां नाना समकितीनी दशा पण कोई
अद्भुत आश्चर्यकारी शांतिमय होय छे; –तेने ओळखनारा पण धन्य बनी जाय
छे.
४३. अहो, धर्मात्मानी अनुभूति केवी होय, अने पोताने तेवी अनुभूति केम प्रगटे?
ते समजवानी जेने धगश छे एवा शिष्यने आचार्यदेव कहे छे के निजस्वरूपना
महिमामां लीन थवाथी शुद्धात्मानी अनुभूति थाय छे.
४४. शुभाशुभरागना एक अंशने पण ज्ञान साथे न भेळववो, अने ज्ञानने आत्मा
साथे अत्यंत तन्मय अनुभववुं, –आवुं भेदज्ञान ते संवरनुं मूळ साधन छे.
४५. ज्ञानीनो जे भाव चिदानंदस्वभावमां तन्मय थईने परिणम्यो ते भाव ज्ञानमय
छे, तेमां राग–द्वेष–मोह नथी. स्वभावना परिणमननी धारामां विभाव केम
होय? वाह रे वाह! साधकनी ज्ञानधारा! –घणी गंभीर छे.