Atmadharma magazine - Ank 382
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : श्रावण : २५०१
५६. जीवमां अचिंत्य ताकात छे; ज्यारे ते पोतानी ताकातने फोरवीने अंतर्मुख थाय
छे त्यारे ते सम्यग्दर्शनादि पामे छे, तेमां बीजुं कोई कारण नथी; ते अकारणीय
छे. अथवा आत्मा मुमुक्षु थईने शांति माटे जाग्यो ए ज तेनुं कारण.
५७. श्री आचार्यदेव अने ज्ञानी संतो फरीफरीने मीठासथी कहे छे के हे भव्य! बीजी
बधी चिंताने छोडीने एक चिदानंदतत्त्वनी प्राप्तिना प्रयत्नमां तारा उपयोगने
जोड. –ए ज सौथी सुंदर काम छे. अत्यारे ज तेनो उत्तम अवसर छे.
५८. ज्ञान–आनंदमय भेदज्ञानज्योति सदाय विजयवंत छे, ते सादिअनंत जयवंत
वर्ते छे. जेणे भेदज्ञान प्रगट कर्युं तेणे आत्मामां विजयनो धर्मध्वज फरकाव्यो.
५९. अहो, आवुं भेदज्ञान अच्छिन्नधाराथी निरंतर भाववा योग्य छे. हे सत्पुरुषो!
आवुं भेदज्ञान करीने तमे मुदित थाओ....रागथी अत्यंत भिन्न चैतन्यना
अनुभववडे आनंदित थाओ.
६०. भेदज्ञानवडे शुद्धात्मानी अनुभूति प्रगटी ते अपूर्व मंगळ छे; अने जेने एवी
दशा प्रगटी छे ते सन्तो पण मंगळरूप छे, ने तेओ अन्य जीवोने पण मंगळनुं
कारण छे.
६१. चैतन्यनी ज्ञानदशा पामवा माटे अंतरमां घणी पात्रता ने घणो प्रयत्न जोईए.
अहा, केटली तैयारी! केटली धगश! केटली जागृती!! अने एनुं फळ तो केवुं
मधुरुं!
६२. ज्ञानीनी परिणति अचिंत्य महिमावंत छे, तेना आत्मामां साधकभावनी
मंगळमाळा गूंथाया ज करे छे. आवा साधक संतोने नमस्कार हो.
दुनियामां गमे त्यां होय,
गमे तेवो प्रसंग होय,
–मुमुक्षु जीव पोताना आत्महितना ध्येयने
कदी भूलतो नथी, के ढीलुं करतो नथी.