Atmadharma magazine - Ank 382
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २५०१ आत्मधर्म : ९ :
अपूर्व शांति पामवा आत्माने ओळखो
[लेखांक ८ ]
समाधिशतकना ३८ मा श्लोकमां कह्युं के जेनुं चित्त पोताना
चैतन्यमां स्थिर नथी तेने ज मान–अपमानना विकल्पो सतावे छे; मान–
अपमानना विकल्पो दूर करवानो उपाय ए ज छे के चित्तने पोताना
चैतन्यमां स्थिर करवुं. बहार भमतुं चित्त मान–अपमानना प्रसंगमां दुःखी
थया वगर रहेतुं नथी; पण जो तेवा प्रसंगे चित्तने स्वस्थ करीने
शुद्धआत्मानी भावनामां जोडे तो राग–द्वेष क्षणमात्रमां शांत थई जाय छे.
आ रीते आत्मानी भावना ते ज मान–अपमान संबंधी राग–द्वेषने
जीतवानो उपाय छे.
(–सं.)
पहेलांं तो रागादिथी रहित तेमज परथी रहित एवा शुद्ध
ज्ञानानंदस्वरूपनी ओळखाण करवी जोईए; पछी अंतर्मुख उपयोग वडे तेने ज
वारंवार भावतां रागादि अलोप थई जाय छे, ने तत्क्षण उपशांतरसनी धारा
वरसे छे. –आनुं नाम वीतरागी समाधि छे. सम्यग्ज्ञान वगर आवी समाधि के
शांति थाय नहिं.
जीवने शांति माटे अंदरमां खटक जागवी जोईए के मारा आत्माने शांति
कई रीते थाय? शांतिना वेदन वगर बीजे क््यांय एने चेन न पडे. अरे जीव!
तारा आत्मा सिवाय बीजुं कोई तने शरण नथी. अंदर एक समयमां
ज्ञानानंदथी परिपूर्ण सत् एवो तारो आत्मा ज तने शरण छे; तेने ओळख,
भाई!
बे सगा भाई होय; पाप करीने बेय नरकमां एकसाथे उपज्या होय.
त्यां एक समकिती होय, बीजो मिथ्याद्रष्टि होय. तेमां समकितीने तो नरकनी
घोर प्रतिकूळतानी