Atmadharma magazine - Ank 382
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : श्रावण : २५०१
वच्चे पण चैतन्यनी शांतिनुं अंशे वेदन पण साथे वर्ती रह्युं छे; ने मिथ्याद्रष्टि एकला
संयोगोनी सामे जोईने दुःखनी वेदनामां तरफडे छे...तेना भाईने पूछे छे के ‘अरे
भाई! कोई शरण? आ घोर दुःखमां कोई सहायक? –कोई आ वेदनाथी छोडावनार?
–हाय! आ असह्य वेदनाथी कोई बचावनार? ’
त्यां समकिती–भाई कहे छे के अरे बंधु! कोई सहायक नथी. अंदरमां भगवान
चैतन्य ज आनंदथी भरेलो छे, तेनी भावना ज आ दुःखथी बचावनार छे.
चैतन्यभावना विना बीजुं कोई दुःखथी बचावनार नथी, बीजुं कोई सहायक नथी. आ
देह ने आ प्रतिकूळ संयोगो ए बधायथी पार चैतन्यस्वरूपी आत्मा छे, –आवा
भेदज्ञाननी भावना सिवाय जगतमां कोई बीजुं तने दुःखथी बचावनार नथी, कोई
शरण देनार नथी. माटे हे भाई! एकवार संयोगने भूली जा...ने अंदर चैतन्यतत्त्व
आनन्दस्वरूप छे तेनी सन्मुख जो. ते एक ज शरण छे. पूर्वे आत्मानी दरकार करी
नहि, पाप करतां पाछुं वाळीने जोयुं नहि तेथी आ नरकमां अवतार थयो....हवे आ ज
स्थितिमां हजारो–लाखो वर्षनुं आयुष्य पूरुं कर्ये ज छूटको. संयोग नहि फरे, तारुं लक्ष
फेरवी नांख. संयोगथी आत्मा जुदो छे तेना उपर लक्ष कर. संयोगमां तारुं दुःख नथी;
तारा आनंदने भूलीने तें ज मोहथी दुःख ऊभुं कर्युं छे, माटे एकवार संयोगने अने
आत्माने भिन्न जाणीने, संयोगनी भावना छोड ने चैतन्यनी भावना कर. हुं तो
ज्ञानमूर्ति–आनंदमूर्ति छुं, आ संयोग अने आ दुःख बंनेथी जुदो मारो आत्मस्वभाव
ज्ञान–आनंदनी मूर्ति छे. –आम आत्मानो निर्णय करीने भावना करवी ते ज दुःखना
नाशनो उपाय छे.
चैतन्यनी भावनामां दुःख कदी प्रवेशी शकतुं नथी. “ज्यां दुःख कदी न प्रवेशी
शकतुं त्यां निवास ज राखीए” ...चैतन्यस्वरूप आत्मानी भावनामां आनंदनुं वेदन
छे. तेमां दुःखनो प्रवेश नथी...एवा चैतन्यमां एकाग्र थईने निवास करवो ते ज दुःखथी
छूटकारानो उपाय छे. कषायोथी संतप्त आत्माने पोताना शुद्धस्वरूपनुं चिंतन ज शांति
आपनार छे. माटे ‘जिनेन्द्रबुद्धि’ श्री पूज्यपादस्वामी कहे छे के हे अंतरात्मा! राग–
द्वेषादि विभावोनी उत्पत्ति अटकाववा माटे स्वस्थ थईने शांतचित्ते तारा शुद्ध आत्मानी
भावना कर...तेना चिंतनथी तारा विभावो क्षणमात्रमां शांत थई जशे.
अज्ञानी जीवोने सम्यग्दर्शन प्रगट करवा माटे पण चैतन्यनी भावना करवी ए
ज उपाय छे.–