तो सर्व आत्मिकज्ञाननां सिद्धांततत्त्वो अनुभव्या.
शरणरूप छे, तेना आश्रये ज शांति थाय छे.
बचवा हुं मारा शांत–शीतळ–उपशांत–आनंदझरता चैतन्यतत्त्वनी छायामां ज जाउं छुं,
–एवा चैतन्यस्वभावनी ज भावना करुं छुं.
लागतुं नथी. चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदरस पासे जगतना बधाय रस तेने नीरस
लागे छे; चैतन्यना उत्साह पासे देहादिनी क्रिया तरफनो उत्साह ऊडी जाय छे. ज्यांसुधी
आ जीवने पोताना निजानंदमय निराकुळ शांत उपवनमां क्रीडा करवानो अवसर नथी
मळतो त्यांसुधी ज ते मळमूत्र अने मांसथी भरेला एवा आ अपवित्र शरीरमां ने
ईंद्रियविषयोमां आसक्त थईने क्रीडा करे छे. परंतु पुरुषार्थना अपूर्व अवसरे ज्यारे ते
सम्यग्दर्शन पामे छे अने तेनुं विवेकज्ञान जागृत थाय छे त्यारे ते पोताना उपशांत
चैतन्यवनमां निजानंदमय सुधारसनुं पान करवा लागे छे, अने बाह्य ईन्द्रियविषयोने
अत्यंत नीरस, पराधीन अने हेय समजीने तेमनाथी अत्यंत उदासीन थई जाय छे.
वारंवार चैतन्यना अनुभवमां उपयोग जोडतां, बाह्यपदार्थो प्रत्येनो प्रेम सर्वथा छूटीने
ते वीतराग थई जाय छे, ने पछी पूर्ण परमानंद प्रगट करीने परमात्मा थई जाय छे.
माटे हे मुमुक्षु! तुं पण तारा चित्तना उपयोगने वारंवार चैतन्यस्वरूपमां जोड.
त्यां ते क्षपकमुनिने अनेक दिवसथी आहार–पाणी छूटी गया होय, गरमीना दिवस
होय, ने