Atmadharma magazine - Ank 382
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २५०१ आत्मधर्म : ११ :
एना विचार विवेकपूर्वक शांतभावे जो कर्या,
तो सर्व आत्मिकज्ञाननां सिद्धांततत्त्वो अनुभव्या.
जेम धोम तडकाथी संतप्त प्राणीओ वृक्षनी शीतळ छायानो आश्रय ले छे, तेम
आ संसारना घोर संतापथी संतप्त जीवोने चिदानंदस्वभावनी शीतळ छाया ज
शरणरूप छे, तेना आश्रये ज शांति थाय छे.
धर्मी जाणे छे के अहो! मारा चैतन्यवृक्षनी छाया एवी शांत शीतळ छे के तेमां
मोहसूर्यना संतप्त किरणो प्रवेशी शकता नथी. माटे मोहजनित विभावोना आतापथी
बचवा हुं मारा शांत–शीतळ–उपशांत–आनंदझरता चैतन्यतत्त्वनी छायामां ज जाउं छुं,
–एवा चैतन्यस्वभावनी ज भावना करुं छुं.
जड–शरीरनो प्रेम छोड....ज्ञायकशरीरमां प्रेम जोड!
समाधिशतक श्लोक ४० मां कहे छे के हे जीव! राग–द्वेषना विषयरूप जे अचेतन
शरीर तेनो प्रेम छोड, अने तेनाथी भिन्न एवा उत्तम ज्ञायकशरीरी आत्मामां प्रेम जोड.
शुद्धात्मस्वरूपमां चित्त जोडतां तेनाथी बाह्य एवा शरीरादि प्रत्येनो स्नेह नष्ट
थई जाय छे. चैतन्यना आनंदमां जेनुं चित्त लाग्युं तेनुं चित्त जगतना कोईपण विषयमां
लागतुं नथी. चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदरस पासे जगतना बधाय रस तेने नीरस
लागे छे; चैतन्यना उत्साह पासे देहादिनी क्रिया तरफनो उत्साह ऊडी जाय छे. ज्यांसुधी
आ जीवने पोताना निजानंदमय निराकुळ शांत उपवनमां क्रीडा करवानो अवसर नथी
मळतो त्यांसुधी ज ते मळमूत्र अने मांसथी भरेला एवा आ अपवित्र शरीरमां ने
ईंद्रियविषयोमां आसक्त थईने क्रीडा करे छे. परंतु पुरुषार्थना अपूर्व अवसरे ज्यारे ते
सम्यग्दर्शन पामे छे अने तेनुं विवेकज्ञान जागृत थाय छे त्यारे ते पोताना उपशांत
चैतन्यवनमां निजानंदमय सुधारसनुं पान करवा लागे छे, अने बाह्य ईन्द्रियविषयोने
अत्यंत नीरस, पराधीन अने हेय समजीने तेमनाथी अत्यंत उदासीन थई जाय छे.
वारंवार चैतन्यना अनुभवमां उपयोग जोडतां, बाह्यपदार्थो प्रत्येनो प्रेम सर्वथा छूटीने
ते वीतराग थई जाय छे, ने पछी पूर्ण परमानंद प्रगट करीने परमात्मा थई जाय छे.
माटे हे मुमुक्षु! तुं पण तारा चित्तना उपयोगने वारंवार चैतन्यस्वरूपमां जोड.
अहा, कोई भावलिंगी संत–मुनिना समाधिमरणनो अवसर होय, आसपास
बीजा मुनिओ बेठा होय, त्यारे वीतरागी आराधनानो कोई अनेरो उत्सव होय छे.
त्यां ते क्षपकमुनिने अनेक दिवसथी आहार–पाणी छूटी गया होय, गरमीना दिवस
होय, ने