Atmadharma magazine - Ank 382
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २५०१ आत्मधर्म : १३ :
सिवाय बाह्य पदार्थो तरफ वलण राखीने राग–द्वेष टाळवा मांगे तो ते कदी टळी शके
नहीं. पहेलांं तो देहादिथी भिन्न ने रागादिथी पण परमार्थे भिन्न एवा चिदानंदस्वरूपनुं
भान कर्युं होय, तेने ज तेमां उपयोगनी लीनता थाय. परंतु जे जीव देहादिनी क्रियाने
पोतानी मानतो होय, के रागथी लाभ मानतो होय तेनो उपयोग ते देहथी ने रागथी
पाछो खसीने चैतन्यमां वळे ज क््यांथी? ज्यां लाभ माने त्यांथी पोताना उपयोगने केम
खसेडे?–न ज खसेडे. माटे उपयोगने पोताना चिदानंदस्वरूपमां एकाग्र करवा ईच्छनारे
प्रथम तो पोताना स्वरूपने देहादिथी ने रागादिथी अत्यंत भिन्न जाणवुं जोईए.
जगतना कोई पण बाह्य विषयोमां के ते तरफना रागमां क््यांय स्वप्नेय मारुं सुख के
शांति नथी, अनंतकाळ बहारना भावो कर्या पण मने किंचित् सुख न मळ्‌युं. जगतमां
क््यांय पण मारुं सुख होय तो ते मारा निजस्वरूपमां ज छे, बीजे कयांय नथी. माटे हवे
हुं बहारनो उपयोग छोडीने, मारा स्वरूपमां ज उपयोगने जोडुं छुं. –आवा द्रढ
निर्णयपूर्वक धर्मी जीव वारंवार पोताना उपयोगने अंर्तस्वरूपमां जोडे छे.
आ रीते उपयोगने अंर्तस्वरूपमां जोडवो ते ज जिनआज्ञा छे, ते ज आराधना
छे, ते ज समाधि छे, ते ज सुख छे ने ते ज मोक्षनो पंथ छे.
आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप छे, तेने भूलीने देहादिकमां आत्मबुद्धिरूप जे विभ्रम छे
ते ज दुःखनुं मूळ छे. ते आत्मविभ्रमथी थयेलुं दुःख आत्मज्ञानवडे ज दूर थाय छे.
‘देहादिकथी भिन्न ज्ञानदर्शनस्वरूप ज हुं छुं, बीजुं कांई मारुं नथी’ –एवा आत्मज्ञान
वगर दुःख मटवानो बीजो कोई उपाय नथी. आवा आत्मज्ञान वगर घोर तप करे
तोपण जीव निर्वाणपदने पामतो नथी.
जेओ आत्मज्ञाननो प्रयत्न करे छे तेओ ज दुःखथी छूटे छे. जेओ आत्मज्ञाननो
प्रयत्न नथी करता तेओ दुःखथी छूटता नथी.
जुओ, आ शास्त्रकर्ता श्री पूज्यपादस्वामीए तत्त्वार्थसूत्र उपर ‘सर्वार्थसिद्धि’
नामनी महान टीका रची छे; तेओ कहे छे के आत्मानो विभ्रम ते ज दुःखनुं कारण छे;
कर्मना कारणे दुःख छे एम न कह्युं, पण आत्मज्ञाननो प्रयत्न पोते नथी करतो तेथी ज
दुःख छे. ‘कर्म’ बिचारे कौन भूल मेरी अधिकाई’ –पोतानी भूलथी ज आत्मा दुःखी
थाय छे, कर्म बिचारुं शुं करे? पोते ज आत्मज्ञाननो यत्न नथी करतो तेथी दुःख छे,
छतां अज्ञानी कर्मनो वांक काढे छे के कर्म दुःख आपे छे, –पोतानो वांक बीजा उपर ढोळे
छे–ते अनीति छे, ते जैननीतिने जाणतो नथी. जो जिनधर्मने जाणे तो आवी