: १४ : आत्मधर्म : श्रावण : २५०१
अनीति संभवे नहीं. मोक्षमार्ग प्रकाशकमां कहे छे के “तत्त्वनिर्णय करवामां उपयोग
लगावतो नथी ए जीवनो ज दोष छे...जीव पोते तो महंत रहेवा ईच्छे छे अने पोतानो
दोष कर्मादिकमां लगावे छे. पण जिनआज्ञा माने तो आवी अनीति संभवे नहि”
...एटले के जे पोतानो दोष कर्म उपर ढोळे छे ते जीव जिनाज्ञाथी बहार छे.
आत्मज्ञान वगर रागादिक खरेखर घटे ज नहि. पहेलांं आत्मज्ञान करे पछी तेमां
लीनतावडे रागादिक घटतां व्रत–तप ने मुनिदशा थाय छे. पं. टोडरमल्लजी पण कहे छे के
जिनमतमां तो एवी परिपाटी छे के पहेलांं सम्यक्त्व होय पछी व्रत होय. हवे सम्यक्त्व
तो स्व–परनुं श्रद्धान थतां जाय छे, माटे पहेलांं द्रव्यानुयोग–अनुसार श्रद्धान करी
सम्यग्द्रष्टि थाय अने पछी चरणानुयोग–अनुसार व्रतादिक धारण करी व्रती थाय.
भाई! तारे आत्मानी शांति जोईती होय...अतीन्द्रिय आनंद जोईतो होय ने दुःखने दूर
करवुं होय तो तारा आत्मज्ञाननो उद्यम कर...आत्मज्ञान ते एक ज शांतिनो ने
आनंदनो उपाय छे, ते ज उपायथी दुःख टळे छे, बीजा कोई उपायथी दुःख टळतुं नथी.
छहढाळामां कह्युं छे के–
“ज्ञान समान न आन जगतमें सुखको कारण,
यह परमामृत जन्म–जरा–मृतु रोग निवारण.”
वळी तेमां ज कहे छे के–
“मुनिव्रत धार अनंतवार ग्रीवक ऊपजायो,
पै निजआतमज्ञान विन सुख लेश न पायो.”
आत्मज्ञान वगर एकला शुभरागथी पंचमहाव्रत पाळीने ठेठ नवमी ग्रैवेयक
सुधी देवलोकमां गयो, तोपण त्यां जराय सुख न पाम्यो, मात्र दुःख ज पाम्यो. अज्ञानी
जीवनी क्रिया संसारने माटे सफळ छे, ने मोक्षने माटे निष्फळ छे; ने ज्ञानीनी जे
धर्मक्रिया छे ते संसारने माटे निष्फळ छे ने मोक्षने माटे सफळ छे. जेने अंतरमां
स्वसन्मुख प्रयत्न नथी ते परसन्मुख जेटलो प्रयत्न करे तेनुं फळ दुःख अने संसार ज
छे. आत्मस्वभावमां स्वसन्मुख प्रयत्नथी ज सुख अने शांति थाय छे; माटे संतो
वारंवार कहे छे के–
य
अपूर्व शांति पामवा आत्माने ओळखो य